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यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - कोई किसी प्रकार से हम पर घात करता है तो हमें भी समझना प्रत्येक वस्तु नित्य नहीं है, बल्कि नष्ट होती है, किन्तु नष्ट होकर चाहिए कि यदि हम किसी पर घात करेंगे तो उसको भी वैसा ही पनः जन्म लेती है। इस मान्यता में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवा कष्ट होगा जैसा हमें होता है। क्योंकि सभी जीव समान है यह दोनों का खंडन किया गया है, क्योंकि शाश्वतवाद मानता है कि तत्त्वमीमांसा बताती है।
जो नित्य है वह समाप्त नहीं होता और उच्छेदवाद मानता है कि बौद्ध दर्शन में तत्त्वमीमांसीय समस्याओं की अवहेलना वस्तु नष्ट होती है पर फिर उत्पन्न नहीं होती है।
बुद्ध ने उन लोगों को नासमझ कहा जो अपने को जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शनों में ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार तत्त्वमीमांसीय समस्याओं में उलझा लेते हैं। उनका कहना है किया गया है। इसलिए दोनों ही अपनी आचारमीमांसा में यह कि तत्त्वमीमांसा से कोई निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं होता और न मानते हैं कि व्यक्ति अपनी साधना, तपस्या तथा त्याग के पूर्ण ज्ञान होता है। जिस प्रकार अंधों को हाथी का आंशिक ज्ञान आधार पर देवत्व की ऊंचाई तक पहुंच सकता है। वह सर्वज्ञ हो प्राप्त होता है, क्योंकि वे हाथी के किसी एक अंग को ही छू पाते सकता है, केवली हो सकता है। ईश्वरवाद में ईश्वर ऊपर से हैं, संपूर्ण हाथी को एक साथ नहीं छू पाते, उसी प्रकार अवतरित होता है या उतरता है किन्तु जैन एवं बौद्ध दर्शनों में मानव तत्त्वमीमांसक आंशिक ज्ञान में ही उलझे रहते हैं। तत्त्वमीमांसा कर्म के बल पर ऊपर की ओर ईश्वर की ऊँचाई तक चढ़ता है। यदि एक जाल है जिसमें व्यक्ति प्रतिदिन फँसता जाता है, उससे तत्त्वमीमांसा में इन दोनों दर्शनों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर ली निकल नहीं पाता। उनके इस विचार की अभिव्यक्ति, ब्रह्मजाल होती तो इनका मानव इतना समर्थ नहीं बन सकता था। सुत्त में देखी जाती है। एक बार श्रावस्ती के जेतवन में विहार के अवसर पर मालुक्य पुत्र ने बुद्ध से लोक के शाश्वत - अशाश्वत,
तत्त्वमीमांसीय आधार अन्तवान् होने तथा जीवदेह की भिन्नता-अभिन्नता के विषय में साधक की अर्हता, पात्रता आदि उसकी तात्त्विक एवं दस मेण्डक प्रश्नों को पूछा था जिसे बुद्ध ने अव्याकृत कहकर मनोवैज्ञानिक संभावनाओं के संदर्भ में देखी जाती है। अतः उसकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया था। इसी प्रकार पोट्ठपाद योग की साधना में तत्त्वमीमांसीय आधार को समझना अति परिव्राजक ने जब ऐसे ही प्रश्न किए तब बुद्ध ने बड़े ही स्पष्ट आवश्यक है। जैन तत्त्वमीमांसा का आधारभूत सिद्धांत सत् या शब्दों में कहा था न यह अर्थयुक्त है, न धर्मयुक्त है, न निरोध के द्रव्य का विवेचन है। लिए है, न उपशम के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न संबोधि। (परमार्थ ज्ञान) के लिए है और न निर्वाण के लिए है। इसलिए मैंने इसे अव्याकृत कहा है तथा मैंने व्याकृत किया है दःख के जैन दर्शन में सत् तत्त्व द्रव्या पदार्थ आदि शब्द लगभग हेतु को, दु:ख के निरोध को तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद एक ही अर्थ में व्यवहृत हुए देखे जाते हैं। सत् या तत्त्व(Reality) को। इस प्रकार हम देखते हैं कि बद्ध ने आर्यसत्य यानी के विषय में दर्शनों में मतैक्य नहीं है। बौद्ध दर्शन में सत को आचारमीमांसा से अपना चिंतन प्रारंभ किया है। किन्तु जब वे निरन्वय क्षणिक माना गया है। सांख्य के अनुसार चेतन तत्त्व दूसरे आर्यसत्य का प्रतिपादन करते हैं तो उसमें प्रतीत्यसमत्पाद रूप पुरुष कूटस्थ नित्य तथा अचेतन तत्त्व रूप प्रकृति परिणामी आ जाता है जो बताता है कि एक के बाद दूसरा कारण उत्पन्न नित्य अर्थात् नित्यानित्य है। वेदान्त मात्र ब्रह्म को सत्य मानता होता है। उससे परिवर्तनशीलता का बोध होता है। आगे चलकर है। जैन दर्शन ने तत्त्व को सापेक्षतः नित्य-अनित्य, सामान्यपरिवर्तनशीलता क्षणिकवाद का रूप ले लेती है अर्थात् हर क्षण विशेष, कूटस्थ तथा परिवर्तनशील माना है। यह अनन्त धर्मों परिवर्तन होता है। फिर अनात्मवाद तथा शून्यवाद के सिद्धान्त वाला होता है। इन अनन्त धर्मों में से कुछ स्थायी होते हैं, जो आ जाते हैं। इस तरह तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रस्फटित होते हैं. सदा वस्तु के साथ होते हैं। उन्हें गुण कहते हैं। कुछ धर्म ऐसे जो बौद्धाचार को प्रभावित करते हैं। निर्वाण की व्याख्या पर होते हैं जो बदलते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। सोने में सोनापन पूर्णत: बौद्ध तत्त्वमीमांसा का प्रभाव है। मध्यममार्ग को अपनाने गुण तथा अंगूठी या कर्णफूल आदि बाह्यरूप पर्याय हैं। पर्याय की बात इसलिए है कि प्रतीत्यसमत्पाद में बताया गया है कि अस्थायी होते हैं। एक पर्याय नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय उत्पन्न
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