Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 13
________________ महामहिम उपा चित्र लिखी-सी महामहिम को देखती रही। उसे विश्वास न आ रहा था। महामहिम ने कहा, "वस, हो गई मेज साफ । जो हो ऐसे ही ले ग्राओ। फिर जाओ और मा को खवर लाकर दो।" उपा मुडी, एकाध हाथ मेज पर दिया और वरावर पैट्री मे चली गई। ___महामहिम को वक्त नही रहता । समय ही ऐमा है । देश विदेश की समस्याए बढती जा रही हैं । स्थिति विस्फोटक या बनी है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति बेहद उलझ गई है । राष्ट्र नेतागो के आपसी राग-द्वेष सभाले नही सभलते । वह सब है । लेकिन इस वक्त उपा की मा की तबियत का सवाल जो उनमे उठ आया, सो उन्हे बडा अच्छा मालूम हो रहा है । जैसे वह सब मिथ्या हो और यह सच ।। __महामहिम सच ही इस समय अपने ऊपर विस्मित है । बहुत-बहुत काम है । सब बेहद जरूरी है। उनसे बचकर वे पाए थे और यहा कुर्सी मे ठोढी को हाथ मे लेकर बैठ गए थे । फिर यहा ऊपा आ गई और उसकी मा की बीमारी का ध्यान हो आया । जाने कैसे उडती-सी बात की तरह उन्हें मालूम हुआ था कि उषा की मा की तबियत ठीक नही है । ध्यान देने जैसी वह बात न थी। फिर भी एकाएक उसका स्मरण उठ पाया और नागहानी उपा से उसका जिक्र हो आया तो अब उन्हे वडी सार्थकता का अनुभव होने लगा या । मानो बाकी और झमेला हो और अनायास यह एक सचमुच की असलियत बीच मे श्रा गई हो। महामहिम जैसे गहरे सोच मे पड गए । दिन रात वह देश और विदेश में रहते है । पत्नी नहीं है, कोई नहीं है । वेटी है, वह भी वस है और जैसे अलग है । मानो उसका होना आनुपगिक हो, असली होना देशो और विदेशो का ही हो । पर अब इस छोटे से कमरे में आकर दीवार के पास अकेले खडे वह सोचने लगे कि देश और विदेश जो इस समय मिट गये है, सो कुछ

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