Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 12
________________ १० जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "ग्रानो, साफ करो मेज ।" उपा डरी-सी डग डग भरती श्रई और मेज को साफ करने लगी । महामहिम खडे देखते रहे । उपा को मालूम हुआ कि उसकी पीठ पर महामहिम की निगाह है। वह जैसे अन्दर सिमटती गई। यह एकम अप्रत्याशित था, असम्भव था । "तुम्हारी मा की तबियत अब कैसी है ?" "जो ?" उसने मेज से अपना मुह नही उठाया था । कैसे उठा सकती थी ? उसके मा है और वह बीमार थी । यह पता महामहिम को हो सका, क्या इतना ही उसे विस्मय - विमूढ करने के लिए काफी न था ? " दवा कर रही हो ? क्या दवा कर रही हो ?" "जी ?" इस बार उसने हिम्मत करके महामहिम की ओर मुह फेरकर उन्हें देखा । महामहिम की आखो मे परिचय देखकर उसे बहुत विस्मय हुआ । बल्कि परिचय से आगे भी कुछ था - चिन्ता थी, करुणा थी । "क्या दवा करती हो ?" "जी, कुछ नही ।" " गलत बात है - मुझे क्यो नही कहा "जी, मा दवा नही लेती ।" " दवा नही लेती !" महामहिम मुस्कराए, बोले, "डाक्टरी दवा नही लेती होगी तो देसी लें। मा की बीमारी पर तुमने छुट्टी क्यो नही ले ली ?" ܝ ܕ ܐܐܟ "जी " " व पहले से श्राराम है न " जी ।" "अच्छा, तो मेज साफ करके और नाश्ता निपटाकर जाकर मा को संभालना और थाके मुझे बताना ।"

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