Book Title: Jaindarshan aur Kevalgyan
Author(s): Mulchand C Bedawala
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 6
________________ पाकर सोनी को मुनिराज पर वहम हो आया कि अवश्य ही मुनि ने जवले चुराये हैं। और मुनि को पूछा कि मेरे सोने के जवले कहां हैं । मुनिराज ने सोचा कि अगर मैं सच बताऊंगा कि इस कौंच पक्षी ने जवले निगले है तो यह सोनी इस कौंच पक्षी को मार डालेगा। अत: मौन रहना ही श्रेष्ठ है। मुनि के मौन रहने पर सोनी का वहम और भी गहरा हो गया और क्रोध में आ सोनी ने मुनि के मस्तक पर लीले चमड़े की पट्टी कस कसा के बान्धकर तेज धूप में मुनि को खड़ा किया। मुनिराज असह्य वेदना को समतापूर्वक सहते रहे। और अन्त में मुनि की दोनों आंखें बाहर आई उन्हें केवलज्ञान प्राप्ति हुई। दढ प्रहारी दढप्रहारी यज्ञदत्त ब्राह्मण का पुत्र होते हुये भी बाल्यकाल में कुसंग से चोरी करते करते एक बड़ा चोर डाकू बन गया। तथा लूटपाट मचाते हुये एक बार उसने एक ब्राह्मण, एक सगर्भा स्त्री, एक गाय और एक बालक की निर्मम हत्या एक ही साथ की । परन्तु इन चार हत्याओं के दृश्य ने उसके विचार में परिवर्तन लाया और उसका हृदय इतना संतप्त और दुखी हुआ कि उसने संयम को धारण किया और दृढ़ प्रतिज्ञा की कि जब तक उसके मन से इन पूर्व पापों की स्मृति नहीं मिट जाती है तब तक वह वहां गांव के मध्य में ध्यानमग्न रहेगा। वहां से गुजरते लोग उस पापी पर पत्थर, ईटें फेंकते और उसे धिक्कारते थे। परन्तु दढप्रहरी समतापूर्वक उपराम सहन करते करते चौहरत गुणस्थान को प्राप्त कर केवलज्ञान को प्राप्त हुये। कुरगडु मुनि धनदत्त श्रेष्ठि के पुत्र थे और बाल्यावस्था में ही उन्होंने धर्मघोषसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। उनमें क्षमा का महान गुण था और अत्यन्त शांत प्रवृति के थे। परन्तु पूर्व भवों के कर्मों के उदय से उनसे किसी भी प्रकार की तपश्चर्या नहीं हो पा रही थी। एक बार ऐसा हुआ कि प्राप्त गोचरी ला करके वापरने बैठे तो एक मासखमण वाले मुनि वहां आये और उनसे कहा कि मैंने तुमसे थूकने का पात्र मंगाया था और तुम अभी तक क्यों नहीं ले आये और उल्टे आहार वापरने बैठ गये। अब देखो मैं तुम्हारे इस गोचरी के पात्र में ही थूकूगा । जब मासखमण वाले मुनि ने गोचरी के पात्र में थूका तो करगडु मुनि बड़े ही विनम्र भाव से बोले कि मैं तो छोटा सा बालक हूं मेरे धन्य भाग्य आप महात्मा स्वामी के थूक का प्रसाद मेरी गोचरी में मुझे प्राप्त हो गया। मेरी किसी भी तरह के अविनय के लिये मुझे क्षमा करना और ऐसी उत्तरोतर भावना आते हुये केवलज्ञान को प्राप्त किया। जैन दर्शन और केवलज्ञान १९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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