Book Title: Jaindarshan aur Kevalgyan Author(s): Mulchand C Bedawala Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ जैन दर्शन और केवलज्ञान D मूलचंद चन्दुलाल बेड़ावाला जैन दर्शन में ज्ञान की पांच श्रेणियां दर्शायी गई हैं। प्रथम मति ज्ञान, द्वितीय श्रुतज्ञान, तृतीय अवधिज्ञान चतुर्थ मन: पर्यव ज्ञान एवम् पंचम केवलज्ञान । उत्तरोत्तर प्रथम चार ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् जब चारघाती कर्म अर्थात् ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय कर्म का समूल रूप से क्षय हो जाता है तो सर्व लोक में रहे पुद्गलों और उनके प्रयायों का स्वरूप स्पष्ट करने वाला केवलज्ञान प्राप्त होता है। परन्तु इस प्रणाली से अलग एक बात और भी है जब किन्हीं विशिष्ठ परिस्थितियों में केवलज्ञान एक ही समय में प्रकट होता है। प्रभु महावीर ने धर्म चार प्रकार के बताये हैं । दान, शील, तप और भाव । दान, शील और तप-जप द्वारा मानव पुण्य अवश्य उपार्जित कर सकता है और कालान्तर में मोक्षगामी भी बन सकता है । यह सब उसके पुरुषार्थ और प्रारब्ध पर निर्भर होता है । पर भाव धर्म की एक विशिष्ठ श्रेणी है जिसमें भक्ति, विरक्ति और प्रायश्चित की अभिव्यक्ति में भावों की उच्चतम सीमाओं को पार करते करते पुण्यात्मा एक ही समय में केवली बन जाते हैं । जैन दर्शन इस बात की पुष्टि करता है और जैन शासन ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां कदम कदम पर उन बिरले महापुरुषों के जीवन के अन्तिम क्षणों में केवलज्ञान सन्मुख था। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। माता मरुदेवी ऋषभ देव प्रभु राजपाट छोड़, दीक्षा अंगीकार कर जब वर्षों तक अपने गृह नहीं लौटे तो १९२ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10