Book Title: Jaina View of Life Author(s): T G Kalghatgi Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 3
________________ First Edition : 1969 Second Edition : 1984 1000 Copies Copies of this book can be had direct from Jaina Sansk ti Samraksaka sangha, Santosh Bhavan, Phaltan Galli, Sholapur (India) Price: Rs. 20/- Per copy, exclusive of Postage जीवराज जैन ग्रन्थमाला परिचय सोलापूर निवासी ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंदजी दोशी कई वर्षोंसे संसार से उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगा रहे थे। सन् १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपाजित संपत्ति का उपयोग विशेष रूप से धर्म और समाज की उन्नत्ति के कार्य में करें। तदनुसार उन्होंने समस्त देश का परिभ्रमण कर जैन विद्वानों से साक्षात् और लिखित सम्मतियाँ इस बात की संग्रह की कि कौनसे कार्य में संपत्ति का उपयोग किया जाय। स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्म काल काल में ब्रह्मचारीजी ने तीर्थ क्षेत्र गजपंथा (नासिक) के शीतल वातावरण में विद्वानों की समाज एकत्र की और ऊहापोहपूर्वक निर्णय के लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया। विद्वत्सम्मेलन के फलस्वरूप ब्रह्मचारीजी ने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगों के संरक्षण, उद्धार और प्रचार के हेतु से 'जैन संस्कृति संरक्षण संघ' की स्थापना की और उसके लिए ३००००) तीस हजार के दान की घोषणा कर दी। उनकी परिग्रहनिवृत्ति बडती गई, और सन १९४४ में उन्हों ने लगभग २,००,०००) दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघ को ट्रस्ट रूप से अर्पण कर दी। इस तरह आपने अपने सर्वस्व त्याग कर दि. १६-१-१९५७ को अन्यन्त सावधानी और समाधान से समाधिमरण की आराधना की। इसी संघ के अन्तर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचालन हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ इसी ग्रन्थमाला का बीसवाँ पुष्प है। Published by Lalchand Hirachand Doshi Jaina Saṁsksti Samrakşaka Sangh Sholapur Printed by S. 1. Akalwadi Manohar Printing Press, Market, Dharwad - 580001 KARNATAKA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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