Book Title: Jain Vidyo me shodh ke Kshitij Ek Sarvekshan Jiv Vigyan
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 3
________________ विशिष्ट नाम कर्मोदयके कारण प्रकट होती हैं। इस कर्मक ही शक्ति माना जा सकता है। इस शक्तिके कारण ही विविध प्रकारके प्राणात्मक कार्य सम्पन्न होते हैं। पर प्राण और पर्याप्तियोंकी पौद्गलिकता या पुद्गलकार्यता प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आगमकालके जीवका लक्षण उत्तरवर्ती बीचके अमूर्त लक्षणसे विलक्षण प्रतीत होता है। संभवतः ये जीवके औपाधिक लक्षण हैं। फलतः सभी तत्वोंके मूलभूत तत्वकी परिभाषाके विकास पर और उसकी अविसंवादी परिभाषाके लिए शोधकी पर्याप्त संभावनाएं हैं। वर्तमान में तो यही कहा जा सकता है कि आगमोंमें मूलतः जीवको अभौतिक माना गया है जिसका स्वरूप स्वानुभतिके सिवा प्रयोग और तर्कोसे जानना सम्भव नहीं है। हाँ, रूसी वैज्ञानिक पावलोवके कुछ प्रयोग अवश्य इस दिशामें कुछ नया प्रकाश देते दिखते हैं। विभिन्न प्रकारके संसारी जीवोंकी उत्पत्ति सामान्यतः गर्भज (जरायुज, अंडज और पोतज) तथा सम्मूच्र्छनज होती है। इसमें गर्भज उत्पत्तिको तो जीवसे जीवकी सलिंगी उत्पत्तिके रूपमें लिया जा सकता है । सम्मूर्च्छनज उत्पत्तिको अजीवसे जीवकी उत्पत्तिके रूपमें लिया जा सकता है। प्राचीनकालमें जोवोत्पत्तिके दोनों ही सिद्धान्त प्रचलित रहे हैं । अरस्तु तो अजीवसे जीवकी उत्पत्तिके सिद्धान्तको मानता था। यह सम्मूर्छनज उत्पत्ति एक कोशिकीय जीवोंके लिए सत्य है पर बहुकोशिकीय एवं एकाधिक इन्द्रियके जीवोंपर लागू नहीं होती । फलतः विकलेनिय जीवोंको उत्पत्ति गर्भज मानी जानी चाहिये । इनका वेद वेद और स्त्रीवेद भी हो सकता है, मात्र नपुंसक नहीं। एतद्विषयक शास्त्रीय मान्यता पर पुनर्विचार करनेका जैनने संकेत दिया है। यही नहीं, अब तो बहतेरे वनस्पतियोंका भी सलिंगी तथा वैक्टीरिया आदिको अलिंगी उत्पत्तिका ज्ञान हुआ है। फलतः गर्भज उत्पत्तिको सलिंगी और अलिंगी-दो प्रकारका मानना चाहिये । इसके अनेक उदाहरण लोढ़ाने दिये हैं। विभिन्न प्रकारके जीवोंको जैन शास्त्रोंमें अनेक प्रकारके वर्गीकृत किया गया है। संसारी जीवोंका ज्ञानेन्द्रियाधारित वर्गीकरण उनकी अपनी विशेषता है। मनुस्मृतिमें यह वर्गीकरण उत्पत्ति स्रोत पर आधारित है । लेकिन यहाँ एक बात माननीय है कि क्या मन छठी इन्द्रिय है या इसे अनिन्द्रिय ही माना जावे ? तामिल व्याकरणके पाँचवीं सदीके ठोलक कप्पियं नामक ग्रन्थमें पाँचके बदले छः इन्द्रियोंका उल्लेख हैं जिनमें मन छठी इन्द्रिय है। वहाँ केवल मनुष्योंमें ही यह छठी इन्द्रिय मानी गई है। वस्तुतः द्रव्यमनके रूपमें मनको भी इन्द्रिय माना जा सकता है पर इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यह भी एक शोधका विषय हो सकता है कि मनका इन्द्रियत्व कब प्रचलित था और कब वह अनिन्द्रियकी कोटिमें आ गया। पंचेन्द्रियोंके क्रमिक विकासके आधारपर जीवोंको पाँच प्रकारका बताया गया है। जीवाभिगममें इन्हें ही दो से लेकर बत्तीस प्रकारका निरूपित किया गया है। एकेन्द्रिय जीवोंकी स्थावर तथा एकाधिक पंचेन्द्रिय जीवोंको त्रस कहा गया है । उन्हें निम्न प्रकारसे उदाहरित किया गया है : एकेन्द्रिय, जीव, स्थावर पृथ्वी जल, तेज, वायु और वनस्पति । इन्द्रिय जीव त्रस कृमि (गोबर और पेटके जीव), जलौका, शंख, आदि ३० प्रकारके जीव । त्रि-इन्द्रिय जीव चींटी, जुआँ, पिपीलका, कनखजूरा, आदि ३९ प्रकारके जीव । ४. नायर बी० के० : क्लासीफिकेशन आव ऐनीमल्स इन ठोलकप्पियम, विश्वभारती सोमिनार, दिल्ली, १९७४ । -- ४७१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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