Book Title: Jain Vidyo me shodh ke Kshitij Ek Sarvekshan Jiv Vigyan
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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________________ सारणी १. जीवके गुणोंका वर्गीकरण भौतिक लक्षण अभौतिक लक्षण १. प्राणवान् (श्वासोच्छ्वासादि) १. प्राणवान (जीव, अदृश्यशक्ति) २. अस्तिकायत्व १८. भूतत्व (अनादि, अनन्त, आविनाशी) ३. जीव (आयुष्य) ५. विज्ञ (संवेदनशीलता?) ४. सत्व (समर्थ) १९. वेद (अनुभूति) ५. विज्ञ (संवेदनशीलता) २०. मानव (अनादि) ६. चेता (पुद्गल चयकारी) २१. स्वयंभूत ७. जेता (पुद्गल क्षयकारी) २२. अन्तरात्मा (अन्तः शरीरी) ८. आत्या (सततगामी) ९. हिंडुक (गमनशील) १०. पुद्गल (पूरण-गलन) ११. कर्ता १२. विकर्ता (कर्मवेध) १३. जगत (गतिशील) १४. जन्तु (जन्मवान्) १५. योनि (प्रजननक्षमता) १६. सशरीरी (शरीर धारक) १७. नायक (कर्मनेता) १८. रंजण (रागद्वेष आदि) जीवनके उदयसे चैतन्यकी भौतिकता पर सहसा अविश्वास नहीं हो पाता, वहीं अनेकों द्वारा पूर्वजन्मको घटनाओंकी स्मृति तथा मृत व्यक्तियोंकी आत्माओंसे सम्पर्ककी प्रक्रिया जीवनतत्वको अभौतिकताको प्रकट करती दिखती है। वस्तुतः बीसवीं सदीमें मानव दिग्भ्रमित है-जीवनके जीवन-तत्वकी यथार्थ प्रकृति क्या है ? फिर भी, यह माना जा सकता है कि वर्तमान विज्ञानकी जीवन तत्व विषयक मान्यतायें आगम युगीन मान्यताओंको पुष्ट करती हैं जहाँ इन्द्रिय अगम्यता एवं अमूर्ततामें स्पष्ट अन्तर परिलक्षित है । जैनने अपने शोध पत्रोंमें प्रदर्शित किया है कि जीवनतत्वको वर्तमान जीव केशिकाओंकी अपेक्षा सूक्ष्म ऊर्जात्मक मानने पर भी उनकी भौतिकता ही पुष्ट होती है क्योंकि ऊर्जायें भी जैनागमोंमें कणमय मानी गई है । कण और ऊर्जाके अतिरिक्त किसी अभौतिक पदार्थको विज्ञान अभी मान्यता नहीं दे पा रहा है । इसके लिए कुछ और ठोस प्रमाणोंको आवश्यकता है। इस प्रकार जीवनके मूल तत्वकी समीक्षा अभी भी एक जटिलतर प्रश्न बना हुआ है । सिकदरने अपने लेखमें जीवनके आविर्भाव और संचलनमें कारणीभत आगमोक्त पर्याप्ति और प्राणोंको जीवन शक्तिके रूपमें बताया है। यह उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्तियोंके विकाससे जीवनके जो लक्षण प्रकट होते है, वे प्राण कहलाते हैं। पर्याप्तियाँ तो प्रायः सभी स्थूल रूपमें प्रकट होती है और उनके विकासमें सूर्यकी तथा शरीरकी स्वयंकी ऊष्मा एवं अन्तःस्थित किण्वोंकी क्रियायें ही कारण होती हैं, यह अब स्पष्ट हो चुका है। हाँ, कर्मसिद्धान्तके अनुसार यह माना जा सकता है कि ये पर्याप्तियाँ -४७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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