Book Title: Jain Vidyo me shodh ke Kshitij Ek Sarvekshan Jiv Vigyan Author(s): Kalpana Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 5
________________ नामोंसे कहा जाता है। यदि सूक्ष्म साधारण जीवको एक कोशिकीयके समकक्ष माना जाय, तो बादर साधारण और प्रत्येक जीव बहुकोशिकीय वनस्पति ठहरते हैं । प्रत्येक जीवोंके भी विभिन्न प्रकारसे ३३० भेद बताये गये हैं जिन्हें जैनसे सारणीबद्ध किया है। शास्त्रोंमें बताया गया है कि इन सभी साधारण वनस्पतियोंके चौदह लाख और प्रत्येक वनस्पतियोंके १० स्पीशीज होते हैं। इस प्रकार वनस्पतियोंके कुल चौबीस लाख स्पीशीज होते हैं। इनके कुलोंकी संख्या १०१३ बताई गई है । वर्तमानमें वनस्पति शास्त्रियोंके लिये तो ये सूचनायें अतिशयतः अतिरंजित प्रतीत होती हैं। हाँ, वे इनके विविध आकार व विस्तारके विवरणसे सहमत हैं । लेकिन वे इनकी अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयुकी सीमा पर वे मौन दिखते हैं । यद्यपि वनस्पति जीव एकेन्द्रिय होते हैं, फिर भी सत्प्ररूणा सूत्रके अनुसार उन्हें अन्य इन्द्रियोंके भी संवेदन होते हैं जो वे अपनी स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण करते हैं । हाल्डेनने बताया है कि वनस्पतियोंमें सभी इन्द्रियाँ होती हैं । आगमकी भाषामें इन्हें भावेन्द्रियोंके रूपमें ही मानना चाहिये क्योंकि वनस्पतियों में अन्य इन्द्रियाँ भौतिक रूपसे विकसित पाई जातीं । वनस्पतियोंके सम्बन्धमें आगमोंमें वर्णन अनेकत्र विखरा हुआ है और उपरोक्त संक्षेपणों और समीक्षणको पूर्ण नहीं माना जाना चाहिये । इस बातकी आवश्यकता है कि शोधार्थी सभी आगमिक स्रोतों से इनका पूर्ण संकलन करें। तभी समीचीन समीक्षा एवं तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है । द्विन्द्रियक जीव : गतिशील जीवोंको त्रस कहा गया है। आजकी भाषामें इन्हें गतिशील प्राणी कहा जाता है । यद्यपि प्राण वनस्पतियोंमें भी होते हैं, फिर भी प्राणि शब्द उच्चतर जीवोंके लिये रूढ़ हो गया है । जैन ग्रन्थोंमें प्राविधोंके सम्बन्ध में उपलब्ध विवरणोंका आंशिक संकलन और समीक्षण जैन और सिकदर ने किया है। ओ० पी० जग्गीने बताया है कि त्रसोंका इन्द्रिय विकास पर आधारित वर्गीकरण चरक, सुश्रुत, प्रशस्तपाद और अरस्तू के वर्गीकरणसे अधिक मौलिक और व्यापक है । सिकदर ने इस वर्गी करणका संक्षेपन किया है । त्रसोंके मुख्य चार भेद माने गये हैं- द्वि-इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय | संघवीने अपनी व्याख्यामें बताया है कि ये भेद मुख्यतः द्रव्येन्द्रिय पर आधारित हैं क्योंकि सभी जीवोंमें पाँचों ही भावेन्द्रियाँ होती हैं । लेकिन सिद्धान्तशास्त्रीने इन भेदोंको भावेन्द्रियाधारित बताया है जो समुचित प्रतीत नहीं होता। सभी द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवोंको मनरहित तथा अलिंगी बताया गया है । इन्हें नपुंसक लिंगी माना जाता है। पंचेन्द्रिय जीवोंमें कुछको मनरहित तथा अलिंगी बताया गया है । अन्योंको मनसहित तथा सलिंगी बताया गया है। प्रज्ञापना और जीवविचार प्रकरण पर आधारित अपनी तुलनात्मक सारणीमें जैनने आधुनिक प्राणिवैज्ञानिक मान्यताओंके साथ जैन ग्रन्थोंमें वर्णित प्राणिविज्ञानका संक्षेपण किया है और बताया है कि शास्त्रीय विवरणके १७ बिन्दुओंमेंसे १० बिन्दुओंका मिलान नहीं होता । उदाहरणार्थ, आधुनिक प्राणिविज्ञान सभी त्रसोंमें द्रव्यमनकी उपस्थिति मानते हैं, उनकी सलिंगी उत्पत्ति मानते हैं, उन्हें तीनों वेदका मानते हैं और उनकी संख्या काफी कम मानते हैं । यही नहीं, अनेक उदाहरणों में जीवोंकी इन्द्रियाँ शास्त्रीय मान्यताओंसे अधिक पाई गई हैं । इन चाक्षुष अन्तरों पर गंभीरतासे विचार करने की आवश्यकता है। यही नहीं, प्राणिविज्ञान सम्बन्धी अध्ययनके अनेक क्षेत्रों में शास्त्रीय विवरण नगण्य ही मिलता है । सिकदर ने अपने विवरण में इस ओर ध्यान नहीं दिलाया है । इसके बावजूद भी, यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि जैनाचार्योंने अपने परीक्षणकी परिधि में सूक्ष्म और बाहर सभी प्रकारकी त्रसोंकी ४७० जातियोंको समाहित किया है जैसा सारिणी २ से प्रकट होता है । इस प्रकारका वर्गीकृत विवरण अन्य दर्शनोंमें उपलब्ध नहीं होता । ६० Jain Education International - ४७३ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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