Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 8
________________ एक वस्तु बनकर रह गया है, अस्तित्वहीन हो गया है। अत: यह स्थिति और भयावह हो उससे पूर्व ही इसमें परिवर्तन आवश्यक है अन्यथा 'का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पछताने' की तरह हाथ मलते रह जाना होगा। भावी पीढ़ी के भविष्य, इस देश की सभ्यता, संस्कृति एवं भूमि की आवश्यकता को ध्यान में रखकर शिक्षा में परिवर्तन नितान्त अपेक्षित है। 'जब जागे तभी सबेरा' मानकर शिक्षा में व्याप्त अराजकता की समाप्ति के उद्देश्य से कटिबद्ध होकर लगना आज समय की पहली आवश्यकता है। यदि बीज को सयम पर शुद्ध खाद, पानी और पोषण मिलेगा तो वृक्ष के अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होकर इच्छित फल देने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगा। समाज एवं राष्ट्र को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र्य से संपन्न बनाने के लक्ष्य से प्रेरित शिक्षा, सेवा और साधना के क्षेत्र में विगत साढ़े सात दशक से कार्यरत श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा तथा उसके द्वारा संचालित श्री जैन विद्यालय, हावड़ा की एक दशकीय शैक्षणिक यात्रा की सम्पूर्ति के उपलक्ष्य में शिक्षा : एक यशस्वी दशक' स्मारिका के प्रकाशन का निश्चय किया गया था एवं इसके संपादन तथा संयोजन का दायित्व मुझे दिया गया था। पूर्व की भाँति संग्रहणीय एवं पठनीय स्मारिका प्रकाशन किसी एक के बूते की बात नहीं हो सकती। अत: साथी संपादकों के अथक अध्यवसाय, लगन तथा सुरुचि के कारण ही यह संभव हो सका है। मैं अपने सम्पादन सहयोगियों के प्रति हार्दिक आभार एवं प्रभूत कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। इसे संग्रहणीय तथा बालकों को सुरुचि तथा जैनत्व के संस्कारों से संपन्न बनाने की दृष्टि से श्री रिधकरणजी बोथरा, संयोजक समारोह समिति ने केवल दिशादर्शन ही नहीं किया अपितु तत्संबंधी सामग्री का चयन कर स्मारिका में प्रकाशित करने का जो स्पष्ट कर्तव्य बोध एवं बल प्रदान किया तदर्थ उनके प्रति आभार प्रकट करना तो मात्र शाब्दिक दायित्व का निर्वाह ही माना जायेगा। ऐसे आलेखों- नवकार मंत्र, नवतत्व, इन्द्रभूति गौतम आदि को न केवल पढ़कर बल्कि उसके अनुरूप आचरित करना ही उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना सही तरीका होगा। भाई श्री पद्मचन्द नाहटा ने इसे सर्वांग सुन्दर एवं आकर्षक ढंग से सन्जित करने का अभूतपूर्व कार्य किया, उसे भी मैं शाब्दिक कृतज्ञता से परे की बात मानता हूँ। __ स्मारिका के मुखपृष्ठ पर मुद्रित सरस्वती का चित्र बीकानेर (राज.) के गंगानगर के निकट पल्लू ग्राम की खुदाई से प्राप्त ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी की प्रतिमा का छायांकन है जो दिल्ली म्यूजियम से भाई श्री ललितजी नाहटा, नई दिल्ली के सौजन्य से प्राप्त हुआ है, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन मेरा कर्तव्य है। मैं यहाँ यह स्मरण दिला दूं कि श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा एवं उसके द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों की स्मारिकाओं के मुख पृष्ठ पर विभिन्न ऐतिहासिक स्थानों से प्राप्त पुरातात्विक महत्व को जैन सरस्वती की प्रतिमा के छायांकनों का मुद्रण ही किया गया है। . ओसवाल प्रिन्टर्स एवं अल्टीमम लेजरग्राफिक्स के कार्यकर्तायों का भी आभारी हूँ जिन्होने अपने अनर्निश श्रम द्वारा इसे समय पर तैयार कर दिया। इस स्मारिका मे सभा खण्ड, विद्यालय खण्ड एवं विद्वत खण्ड का समायोजन किया है। सभा खण्ड एवं विद्यालय खण्ड में संस्थान से संबंधित पदाधिकारियों, शिक्षकों एवं छात्रों के आलेखों का प्रकाशन किया गया है। विद्वत खण्ड में मान्य विद्वानों से आमंत्रित आलेखों का प्रकाशन किया गया है। विद्वानों, मनीषियों एवं चिन्तकों ने पूर्व की भाँति हमारे अनुरोध एवं आग्रह पर आलेख भेजकर हमें न केवल अनुगृहीत किया है बल्कि स्मारिका को संग्रहणीय एवं पठनीय कलेवर प्रदान करने में जो स्नेह, सहयोग एवं सौजन्य प्रदान किया है तदर्थ राशि-राशि कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। इस खण्ड में शिक्षा सम्बन्धी ऐसे अनेक आलेख हैं जो न केवल शिक्षा जगत में व्याप्त अराजकता पर प्रकाश डालते हैं अपितु उसमें मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते हैं। मैं सुधी पाठकों को उन्हें पढ़ने का अवश्य अनुरोध करूंगा। इस स्मारिका में सभा एवं उसकी प्रवृत्तियों के परिचय के साथ विभिन्न समारोहों, क्रिया-कलापों एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं के बहुरंगी चित्र भी प्रकाशित किये हैं जो इन प्रवृत्तियों द्वारा शिक्षा, सेवा और साधना के क्षेत्र में किये गये कार्यों का ऐसा लेखा-जोखा है जो काल के भाल पर लिखा गया अमिट लेख है। ये चित्र इसलिये प्रकाशित किये हैं कि भावी पीढ़ी को सत्संस्कार, प्रेरणा और उत्साह प्रदान करे एवं सेवा के मार्ग में प्रवृत्त कर सके। यह स्मारिका अब आपके हाथ में है, यह कैसी है और आपको कैसी लगी है, यह तो आप जैसे सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगा। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयामि। यह स्मारिका आपकी है और यह आपको ही समर्पित है। किमधिकम! धन्यवाद भूपराज जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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