________________
सम्पादकीय | १५
किया है। चतुर्थकलिका से छठी कलिका तक श्रुतधर्म की व्याख्या सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और आस्तिक्यवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है । सप्तमकलिका में अस्तिकायधर्म के सन्दर्भ में पंचास्तिकाय, षड्द्रव्यात्मक लोक एवं परिणामवाद की चर्चा प्रस्तुत की गई है। अष्टमकलिका में धर्मतत्त्व के सन्दर्भ में चारित्रधर्म की और नवमकलिका में श्रुतधर्म के सन्दर्भ में प्रमाण-नय-निक्षेपवाद तथा अनेकान्तवाद की झाँकी प्रस्तुत की गई है । सांराश यह है कि तृतीय कलिका से लेकर नवमकलिका तक धर्मतत्त्व का सांगोपांग वर्णन किया गया है।
स्व. आचार्यश्री को दुर्लभ कृति का सम्पादन आज से पचास वर्ष पूर्व लिखित और प्रकाशित स्व. आचार्यश्री की इस दुर्लभ एवं दुष्प्राप्य कृति का सम्पादन एवं पुनर्मुद्रण आवश्यक अनुभव किया जा रहा था। इधर स्व० आचार्यश्री की जन्म शताब्दी इसी वर्ष मनाई जानी थी। नवयुग सुधारक जैनविभूषण मेरे पूज्य गुरुदेव भण्डारी श्री पदम चन्द जी महाराज की सतत प्रेरणा रही कि जन्म शताब्दी के स्वर्ण-अवसर पर स्व० आचार्यश्री के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में उनकी इस दुर्लभ कृति का आचार्यश्री के भावों को सुरक्षित रखते हुए नये ढंग से, नई शैली में सुन्दर सम्पादन किया जाए। सभी ने मेरे निर्बल कन्धों पर इस बहुमूल्य रचना का व्यवस्थित ढंग से सम्पादन का भार डाला । यद्यपि मैं अल्पश्रुत उन बहुश्रुत महापुरुषों की कृति को व्यवस्थित रूप देने में अपने आप को असमर्थ पा रहा था, परन्तु शास्त्रविशारद आगमज्ञ पं० श्री हेमचन्द्रजी महाराज से मार्गदर्शन का सम्बल पाकर उत्साहित हो उठा और सारे ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ कर तदनुसार यत्र-तत्र भाषा को परिमार्जित करना और दुरुहशास्त्रीय भावों को परिवद्धित रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक समझा। स्व० आचार्यश्री के आशय को व्यवस्थितरूप से सुसंस्कृत शैली में प्रस्तुत करना उनके प्रशिष्य होने के नाते अधिकार समझकर मैंने कुछ कलिकाओं का क्रमपरिवर्तन किया है, साथ ही कहीं-कहीं विस्तृत शास्त्रीय पाठक पाठ की भावधारा को भंग करने वाले प्रतीत होने से उन्हें फुटनोट में देना पड़ा है । जो भी हो, मैंने इस दुर्लभ कृति का नवसंस्करण तैयार करने का जो बीड़ा उठाया था, उसे मैं कितना निभा पाया हूँ, इसका निर्णय सुज्ञ पाठक ही करेंगे।
किन्तु इतना मैं साधिकार कह सकता हूँ, जैनतत्त्वकलिका का यह नवसंस्करण पाठकों को रुचिकर लगेगा, और जैन-जैनतर सभी जिज्ञासुजन इसे हृदयंगम करके लाभ उठा सकेंगे।
____ अन्त में, मैं साहित्य महारथी मुद्रण कला विशेषज्ञ आत्मीय श्री श्रीचन्द जी सुराना का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस रचना के सम्पादन प्रकाशन में अपना बहुमूल्य परामर्श और सम्पूर्ण सहयोग दिया है।
मेरे लिए यह उल्लास का विषय है कि स्व. आचार्यश्री की जन्मशताब्दी के जनजागरणयुग में नये परिधान के साथ जैनतत्त्वकलिका प्रस्तुत हो रही है ।
-अमरमुनि