Book Title: Jain Tattva Kalika
Author(s): Amarmuni
Publisher: Aatm Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ पुरोवचन [प्रथम संस्करण] श्रीमान् उपाध्याय आत्माराम जी जैनमुनि प्रणीत जैनतत्वकालिकाविकास नामक पुस्तक का मैंने आरम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त अवलोकन किया । यद्यपि अनेक लेख सम्बन्धित कार्यों में व्यग्र होने के कारण पुस्तक का अक्षरशः पाठ करने के लिये अवसर नहीं मिला, तथापि तत्प्रकरण के सिद्धान्तों पर भले प्रकार दृष्टि दी गई है, और किसी किसी स्थल का अक्षरशः पाठ भी किया है पुस्तक के पढ़ने से प्रतीत होता है कि पुस्तक के रचयिता जैनसिद्धान्तों के ही केवल अभिज्ञ नहीं, प्रत्युत जैन आकर ग्रन्थों के भी विशेष पण्डित हैं क्योंकि-जिन 'नयकणिका' आदि ग्रन्थों में अन्य दर्शनों का खण्डन करते हुए जैनाभिमत नयों का स्वरूप वर्णन किया है, उनके विशेष उद्धरण इस ग्रन्थ में सन्दर्भ की अनुकूलता रखते हुए दिये गये हैं । यह ग्रन्थ नौ कलिकाओं में समाप्त किया गया है। ग्रन्थकर्ता ने इस बात का भी बहुत ही ध्यान रखा है जो कि ग्रन्थों के उद्धरणों का ठीक-ठीक निर्देश कर दिया है । आजकल यह परिपाटी पाठ करने वालों के लिए बहुत ही लाभप्रद तथा कर्ता की योग्यता पर विश्वास उत्पन्न करने वाली देखी गई है.। निःसन्देह यह ग्रन्थ जैन अजैन दोनों के लिए बहुत ही लाभकारी प्रतीत होता है । इस लघुकाय ग्रन्थं के पढ़ने से जैन प्रक्रिया का सिद्धान्तरूप से ज्ञान हो सकता है। मेरे विचार में तो ग्रन्थ के रचयिता को बहुत काल पर्यन्त शास्त्र का मनन करने से बहुदर्शिता तथा बहुश्रुतत्व का लाभ हुआ होगा परन्तु यदि कोई भले प्रकार इस ग्रन्थ का मनन कर ले तो उसको अल्प आयास द्वारा जैन सिद्धान्त प्रक्रिया का बोध हो सकता है । पाठकों को चाहिए कि अवश्य ही न्यूनातिन्यून एकबार इसका परिशीलन करके कर्ता के प्रयत्न से लाभ उठावें, विशेषतः जैनमात्र को इस प्रयत्न से अपना उपकार मानना अत्यावश्यक प्रतीत होता है । यदि इस ग्रन्थ को किसी जैन पाठशाला में पाठ्यप्रणाली के अन्तर्गत किया जावे तो बहुत अच्छा मानता हूँ, कार्यान्तर में व्यग्र होने से इसका अधिक महत्व लिखने में असमर्थ हूँ। विद्वदनुचर प्रोफेसर कवितार्किक सिंहदेव शास्त्री ओरियण्टल कॉलेज, लाहौर । (दर्शनाचार्य)

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 650