Book Title: Jain Tattavsara Granth Satik
Author(s): Surchandra Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthamala Ahmedabad

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Page 7
________________ अशुद्धम् रस्त्ये धर्मः प्युत्पादिषु द्दष्टते दृष्टन्ते अत्रास्ति को नोरी मुख्येयु • इस्ति त्वमि शुद्धम् रस्ती घर्म प्युत्पादादिषु दाष्टन्ते दाष्टन्ते अत्राssस्तिको गुह्य नोररी मुख्येषु sस्तित्वमि , पत्र ६५ ६८ ૪ ७५ ७५ ሪሪ ९० ९२ ९६ ९७ पृष्ठ पंक्ति १० r १ १ १ १ ब १२ १ ५ १२ ง अशुद्धम् त्युत्पन्न ममि प्रतिकार्ये नाङ्गापाङ्गा त्या दिना द्दान्त पुष्पगन्त शीर्ष छाया एकरव མི शुद्धम् व्युत्पन्न मभि पत्तिकार्ये नाङ्गोपाङ्गा त्यादिना दान्त पुष्पमन्त शीर्षे छाया एकस्व पत्र ९८ ९८ ११४ ११५ १२१ १३१ १३२ १३८ १३८ १३८ पृष्ठ पंक्ति २ १ १ ११ ४ १३ १४ १० ૧૨

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