Book Title: Jain Tattavsara Granth Satik
Author(s): Surchandra Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthamala Ahmedabad
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SEOSESORIS SUSISIGHTS
करतां पण कर्मनी अनंतता जणावी जीव केवी रीते कर्मथी मुक्त बने अने योग पामे ते जणाव्युं छे.
वीजा 'अधिकारमा जीव शुभाशुभ कर्मने केवी रीते ग्रहण करे ते दर्शावतां पाच समवाय (काळ, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अने पुरुषार्थ ) कारणो जणावी दृष्टांतपूर्वक समजण आपी छे.
त्रीजा अधिकारमा जीव पोते अरूपी होवा छतां रूपी कर्मने केवी रीते ग्रहण करे तेने लगतुं वर्णन करी तेनी पुष्टि माटे पारानी गूटिका, वनस्पति, नाळिएर, लोहचुंबक विगेरेना व्यवहार दाखला आप्या छे.
चोथा अधिकारमा जीव अमूर्त ( अरूपी) अने कर्म मूर्त होवाथी ते बनेनो संयोग केवी रीते थइ शके तेनो सुंदर ख्याल आपतां कर्पूर, हीग विगेरेनां उदाहरणो आप्या छे.
पांचमा अधिकारमा सिद्धना जीवोने कर्म केम लागता नथी ते माटे सरस निरूपण करी तेनी साबिती माटे व्यवहारु दृष्टांतो आप्यां.छे.
छठा अधिकारमा जीवनो मूळ स्वभाव तो कर्म ग्रहण करवानो छे ते मूळ स्वभाव छोडी सिद्धना जीवो कर्मथी मुक्त केम रही शके ? | ते शंकानुं समाधान करतां पारो, सुवर्ण, अबरख अने चकोर पक्षी विगेरेना दाखला आप्या छे.
सातमा अधिकारमा मुक्तिमां जीवो गया ज करे अने ससार भव्य जीवथी कदी शून्य ज न थाय ए बंने परस्पर विरोधी हकीकत केम घटी शके ? तेनुं समाधान सुंदर रीते करी हृद, नदी अने समुद्रना युक्तिपुरस्सरना दृष्टांतपूर्वक सरस खुलासो कर्यो छे.
आठमा अधिकारमा परब्रह्मनुं खरूप दर्शावी, ईश्वर जगतनो कर्ता नथी ज-आ वात बराबर मुद्दासर स्पष्ट करवामां आवी छे...
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