Book Title: Jain Tattavsara Granth Satik
Author(s): Surchandra Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthamala Ahmedabad
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सत्तरमा अधिकारमां जड - अचेतन मूर्तिनी सेवा-उपासनादिथी फळ - प्राप्ति केम थाय ? तेवा नास्तिक मतनुं निराकरण करी युक्तिपूर्वक मूर्तिपूजा सिद्ध करी बतावी तेना फळनुं निरूपण कर्यु छे. आ बाबतमां राम-सीता, दक्षिणावर्त शंख, एकलव्य, तथा खेतरमां ऊभो करातो चाडीयो विना दृष्टांतो आप्या छे.
अढारमा अधिकारमा सिद्ध भगवंतो तो निराकार छे छता तेने आकारनुं रूप आपी तेमनी मूर्ति केम करी शकाय ? आ शंकानुं सारी रीते समाधान करी मूर्तिपूजानी सविशेष पुष्टि करी छे.
ओगणीशमा अधिकारमां चिंतामणिरत्न विगेरे जड पदार्थो तात्कालिक फळ आपे छे ज्यारे मूर्तिपूजा - प्रभुभक्ति केम तात्कालिक फळदायी बनती नथी ते संबंधमां गर्भस्थिति, मंत्रसिद्धि विगेरे दाखलाओ आपवामां आव्या छे.
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वीसमा अधिकारमां इतर दर्शनोनां मंतव्योनो परिहार करी आत्मज्ञानथी ज-अध्यात्मथी ज मुक्तिप्राप्ति थाय छे ते सिद्ध करी बतान्युं छे. एकवीसमा अधिकारमां बधा तत्त्वनो सार “ मनोनिरोध " छे एम दर्शावी छेवटे प्रशस्ति आपवामा आवी छे. आ ग्रंथमा कर्ताए पोताना अनुभवना व्यवहारु दृष्टांतो एटला बधा आप्या छे के तेथी तेमनी अप्रतिम व्यवहारदक्षता सिद्ध थाय छे. आवा व्यवहारु दृष्टात अन्यत्र जोवामां आवता नथी.
ग्रंथकर्ता -
आ ग्रंथना रचनार सुरचंद्र वाचक छे. तेमने लगतो विशेष परिचय प्राप्त थयो नथी. तेओ खरतरगच्छनी बृहत् शाखामां थया छे. प्रशस्ति परथी तेमनी परंपरा नीचे प्रमाणे आळेखी शकाय.
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