Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund
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अलकाने जी ॥ चहुटा चोवटा दीसे अपार, द्रव्यतणो कोइ लाने नही पार ॥ २१ ॥वर अठार वसे सदाइ, दुःख दोहग नही कदाइ ॥ किहांकणे व्यापारी रुपैया पटाये, किहांतो जवे हरी जवेर वटावे ॥ २२ ॥ दोसी शेठने कंदोइ सार, एहवी सोने के रुडी बजार ॥गढमढ मंदि र पोहोल प्रकार, लांबो पोहोलो जोयण विप्तता र ॥ २३ ॥ यात्रा करवाने श्री संघ चडीया, पे हेलो सेलर वाव्ये जइ मिलीया ॥पाणीमां दी से ने अति तरंग, निर्मल नीरवहे घणु गंग ॥ ॥ २४॥ देव नमिका अाश्रम कीधो, संघे ति हां कणे विसामो लीधो ॥ गीत गानने करता विनोद, पगला देखीने उपनो मोद॥ २५ ॥ शालिकंडनं निर्मल नीर. जेह दीठाथी नपनी धी र ॥ जल पीधाथी विकओं ने नाण, अज्ञान ना शिने आवे ने ज्ञान ॥ २५॥ हमो हिंगलाज कु मारकुंड, नवजल तारण दीसे तरंग॥ जेना ज लसंगे कर्म खपावे, मोद पुरीयें वहेलो पोहो चावे ॥ २७॥ नूपणकुंम शाह नूषणे कीचो, धन खरचीने लाहोज लीधो॥ पासे रमपीक

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