Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund
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सी कहेवाय, बेहुनो परिवार एटलो थाय ॥५०॥ बन्ने शोक्योने तीसरो राजा, सुख भोगवे रहे नित्य ताजा ॥ पंचाशी जण जगतमां कहेडे, काया नगरीमा एकठा रहे ॥ ५१ ॥ एक दि न बेहु शोके कीधी लडाइ. मेहेलो बंधाइ सा म सामी नाइ ॥ प्रत्ति कुटुंब एक पासें थy, निटत्ति कटंब मकामें रा॥५२॥ बांध्या मो रचा लडवाने सारू, कीधी सामग्री गोलाने दा रू ॥ सहुना दादाजी मनज कह्या, प्रत्ति पुत्र नी संघाते गया ॥ ५३॥ सहुनो इष्ट प्रात माराम, सादी रहीने जुवेने काम ॥ तमारा में दीलमां इम धारयुं, घरडे बुढापण कीधुंडे खारूं ॥ ५४॥ मानेतिकरे वशज थयो, मा टे कुंवरनी संघातें गयो ॥ एवं ना घटे घरडाने करवं, अणमानीतिना कुंवरथी वडवू ॥ ५५॥ माटे आपणे तिहां नहीं जावं ॥ अणमानीति ना कुंवर तरफ था, ॥ विवेक सैन्यने धीरज श्रापी, लडाइ करवी मुक्कर थापी ॥ ५६ ॥ तु मारी तरफ हमे रहीशुं, मन राजाथी युद्ध क रीशुं ॥ निवृत्ति सुत तत्पर थया, हथीयार लेइ

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