Book Title: Jain Shastro me Ahar Vigyan
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 10
________________ प्रो० नन्दलाल जैन चाहिए। यह तथ्य जितना साधुओं पर लागू होता है, उतना ही सामान्य जनों पर भी। निशीथचूणि (५९०-६९० ई० ) में बताया गया है कि एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में आहार-सम्बन्धी आदतें और परम्परायें भिन्न-भिन्न होती हैं। जांगल, अ-जांगल एवं साधारमा क्षेत्र विशेषों के कारण मानव प्रकृति में विशिष्ट प्रकार से त्रिदोषों का समवाय होता है। यह आहार के घटकों का संकेत या नियन्त्रण करता है। विभिन्न ऋतुयें भी आहार की प्रकृति और परिमाण को परिवर्ती बनाती हैं। शरद-वसन्त ऋतु में रूक्ष अन्नपान, ग्रीष्म व वर्षा में शीत अन्नपान, हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में स्निग्ध एवं उष्ण आहार लेना चाहिए । उग्रादित्य ने तो दिन के विभिन्न भागों को ही छह ऋतुओं में वर्गीकृत कर तदनुसार खानपान का सुझाव दिया है : पूर्वाह्न : वसन्त; मध्याह्नः ग्रीष्म; अपराह्नः वर्षा; आद्यरात्रिः प्रावृट्; मध्यरात्रिः शरद; प्रत्यूषः हेमन्त भगवतीआराधना में कहा गया है कि ऋतु आदि की अनुरूपता के साथ क्षेत्र-विशेष की परम्परा भी आहार-काल व प्रमाण को प्रभावित करती है। मूलाचार तो आहार के व्याधिशामक मानता है। यही नहीं, आहार को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उत्साहवर्धक ए r: सन्तष्टिकारक भी होना चाहिए। यह प्रक्रिया आहार द्रव्यों और उनके पका की विधि पर भी निर्भर करती है। साधु तो ४६ दोषों से रहित शुद्ध भोजन, विकृति-रहि पर द्रव-द्रव्य युक्त विद्ध भोजन एवं उबला हुआ प्राकृतिक भोजन कर आनंदानुभूति करता। पर सामान्य जन इसके विपरीत भी योग्यायोग्य विचार कर भोजन करते हैं आयुर्वेदिक दृष्टि से उग्रादित्य का मत है कि भोजन काल तब मानना चाहिए (१) मल-मूत्र-विसर्जन ठीक से हुआ हो (२) अपानवायु निसरित हो चुकी हो (ब शरीर हल्का लगे और इन्द्रियाँ प्रसन्न हों (४) जठराग्नि उद्दीप्त हो रही हो और भूख ला रही हो (५) हृदय स्वस्थ हो और त्रिदोष साम्य में हो। नेमीचन्द्र चक्रवर्ती ने भी मम भावनात्मक क्षुधानुभूति, असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा, आहार-दर्शन से होने वाली र एवं प्रवृत्ति को आहारकाल बताया है। आशाधर ने सूर्योदय से पैंतालिस मिनट बाद से ले सूर्यास्त से पौन घण्टे पहले तक के काल को सामान्य जनों के लिए आहार काल बताया। इसके विपर्यास में, मूलाचार में साधुओं के लिए सूर्योदय से सवा घण्टे बाद तथा सूर्यास्त सवा घण्टे पूर्व के लगभग १० घण्टे के मध्य काल को आहार काल बताया गया है। उद रुष दिन में एक बार और मध्यम पुरुष उपरोक्त समय सीमा में दिन में दो बार आहार हैं। रात्रिभोजन तो जैनों में स्वीकृत ही नहीं है। इस प्रकार सामान्य मनुष्य का लगा आधा जीवन उपवास में ही बीतता है। १. उग्रादित्य, आचार्य; कल्याण कारक, सखाराम नेमचंद्र ग्रन्थमाला, शोलापुर १९४० पृ० ५६ । २. भगवती आराधना, पृ०६०७ ३. मूलाचार, पृ० ३७४ ४. कल्याणकारक, पृ० ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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