Book Title: Jain Shastro me Ahar Vigyan
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 12
________________ १९२ प्रो० नन्दलाल जैन का प्रमाण है। चतुःसमयी आहार-युग में यह दैनिक आहार प्रमाण होगा। सन्तुलित आहार की धारणा के अनुसार, एक सामान्य प्रौढ़ पुरुष और महिला का आहार-प्रमाण १२५०१५०० ग्राम के बीच परिवर्ती होता है। आगमिक काल के चतुरंगी आहार में सम्भवतः जल भी सम्मिलित होता था। शास्त्रों में आहार प्रकरण के अन्तर्गत आहार के विभाग भी बताये गये हैं। मूलाचार में उदर के चार भाग करने का संकेत है। उसके दो भागों में आहार ले, तीसरे भाग में जल तथा चौथा भाग वायु-संचार के लिए रखें। इसका अर्थ यह हुआ कि भोजन का एकतिहाई हिस्सा द्रवाहार होना चाहिए। इससे स्वास्थ्य ठीक रहेगा और आवश्यक क्रियाएँ सरलता से हो सकेंगी। उग्रादित्य ने आहार-परिमाण तो नहीं बताया पर उसके विभाग अवश्य कहे हैं। सर्वप्रथम चिकना मधुर पदार्थ खाना चाहिए, मध्य में नमकीन एवं अम्ल पदार्थों को खाना चाहिए, उसके बाद सभी रसों के आहार करना चाहिए, सबसे अन्त में द्रवप्राय आहार लेना चाहिए। सामान्य भोजन में दाल, चावल, घी की बनी चीजें, कांजी, तक्र तथा शीत/उष्ण जल होना चाहिए। भोजनान्त में जल अवश्य पीना चाहिए । सामान्यतः यह मत प्रतिफलित होता है कि भूख से आधा खाना चाहिए। यह मत आहार की सुपाच्यता की दष्टि से अति उत्तम है। शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि पौष्टिक खाद्य, अधपके खाद्य या सचित्त खाद्य खाने से बात रोग, उदर पीड़ा एवं मदवृद्धि होते हैं । सामान्य आहार घटकों में उपरोक्त विभाग निश्चित रूप से आधुनिक आहार विज्ञान के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। इसमें सन्तुलित आहार की धारणा का समावेश नहीं है। इसी कारण अधिकांश साधुओं में पोषक तत्त्वों का अभाव रहता है और उनका शरीर तप व साधना के तेज से दीप्त नहीं रहता। वह प्रभावक एवं अन्तःशक्ति गभित भी नहीं लगता। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से यह तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं है, फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से इसकी महान् भूमिका है। भक्ष्याभक्ष्य विचार जैन शास्त्रीय आहार-विज्ञान में विभिन्न खाद्य पदार्थों की एषणीयता पर प्रारम्भ से ही विचार किया गया है। आचारांग, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, भास्करनन्दि, आशाधर और शास्त्री ने अभक्ष्यता के निम्न आधार बताए हैं, ( सारिणी ५)। इनसे स्पष्ट है कि अभक्ष्यता का आधार केवल अहिंसात्मकता ही नहीं है, इसके अनेक लौकिक आधार भी हैं। मानव के परपोषी होने के कारण इन सभी आधारों पर विचारणा स्वतन्त्र शोध का विषय है। १. मूलाचार, पृ० ३६८ २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा, पृ० २५५ ३. शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल (अनु०) श्रावक धर्म प्रदीप, वर्णी शोध संस्थान, काशी १९८० पृ० १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibre y.org

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