Book Title: Jain Shasan ka Dhvaj
Author(s): Jaykishan Prasad Khandelwal
Publisher: Veer Nirvan Bharti Merath

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Page 32
________________ 'महतिरिय लोए सिहापदणाण णमंसामि। सितिमिसीहियामो अदापयपए सम्मेटे, उन्वते, पाए, पावाए मनिममाए हस्थिवालिय सहाए नमसामि । जाबो मच्याबो का विमिसीहियाओ जीवलोम्मि ईसिपम्भार तलगया सिदानंदानं कम्मच. कमुक्का मोरया गिम्नलाणं गुरु-आयरिष-उबज्माया पन्चतित्येर कुलपराणं नसामि। चाउवण्णाय समणसंघा य मरहे राबएमु समु पंचमु महाविदहेतु मज्न मंगलं होग्य। लोए संति माहवो संजदा तपसीओ एदे मजममंगलं पवितं। एदे करे भावदो विमुडो मिरमा अहिएंदिऊण तिडकाऊण मंगालमत्यर्याम्म पडिलेहिय अट्टकम्मरिओ सिविहतियरण सुद्धो॥॥ (मैं ध्यंलीस अधीलंक के और तिरंग्लार-मध्यनीक के-मिदायतनी को नमम्मकार करना है। आसाम पवंत. मम्मशम्बर. उजंयन्न. चपापुर एवं मध्यमा पावानगर के हम्निपान की मभामष्टा में द्धि निपाधिका को मैं नमस्कार करता हूँ। नया और भी कोई मिडि निवाधिकार जीवलात में पिप्राग्भर थिवी में मिदा की. युद्धी की. कमंचक्र में मम्मी की. नीगंगा की, निमलों की. ग: आचार्य उपाध्यायों की एव कुलकों की हो. उन्हें मनमनार करना । चातुर्वणं (नि. मान. ऋषि और अनगार) श्रमणमंघ जो भी पान भन्न. पाच गवन, एवं पांच महाविदडी में हो गए वे मुझे मगलकारीहा। नाम जो भी माध हो. मयत हो, तपस्वी हो व मब म पवित्र करे और मंगलप्रद हो। या में भाव में बिगद्ध कर, मम्नक जमाकर इन्हें नमस्कार करता ह, मिडों को मानक पर हम्ता न करवं. मन वचन वाव में शुद्ध कर अप्ट कमी का प्रतिलेखन करना।)

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