Book Title: Jain_Satyaprakash 1956 11
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir યતિ જિનવિજયકે....વિશેષ ખેાજડી આવશ્યકતા ४ : २ ] f ૪૫ कि इससे अपना काम भी बन जायगा और यतिजीका ब्रह्मचर्य व्रत भी अखंड बना रहेगा । परामर्श अनुसार लवंगी भक्त श्राविका के रूपमें जीवन विजय के व्याख्यानमें रोज आने लगी। पर छः महिने हो जाने पर भी यतिजीने उसके सामने कभी दृष्टि तक नहीं डाली । अब तो सफलता में भी सन्देह होने लगा । पर लवंगी भी कम माया न थी । उसने पूरे विश्वास के साथ अपना प्रयत्न चालू रखा । व्याख्यान समाप्त होने पर वह उससे कुछ पूछना चाहती है, इस रूप में विनयपूर्वक सामने जाकर खड़ी रही। अब तो यतिजीको उससे पूछना ही पड़ा कि क्यों ? कोई प्रश्न पूछना है ? उसने कहा हां महाराज ! बहुत दिनों से इच्छा थी, पर आपके तेजके सामने मैं उपस्थित होने का साहस न कर सकी। फिर साधारण वातचीत करती । उसे वास्तवमें कोई प्रश्न तो पूछना ही नहीं था । उसका उद्देश्य तो अपनी ओर आकर्षित करने का ही था । जिसका सूत्रपात यहांसे हो गया । 1 अब तो दिनोंदिन वह अधिक समय तक एकांतमे ठहरकर बात करने लगी, परिचय बढ़ता गया, आखिर जब उसने देखा कि अब यतिजी पूर्ण रूपसे प्रभावित हो गये हैं और मेरे कहने के अनुसार ही ये अनुचित कार्य करने को मी तैयार हो जायेंगे। एक दिन यतिजीने उसकी भक्ति से प्रसन्न हो कोई इच्छा हो तो मांग, कहा । तब उसने अवसर देखकर कहा - महाराज ! मेरी एक मांग है, बचन दें तो निवेदन करूं । यतीजीने स्वीकृति दे दी: कि तुम जो कहोगी, किया जायगा । उसने कहा, तो अब आप वचनबद्ध है, मेरी मांग है कि ये दाढी मूछोंको मुंडवा दीजिये । आज रातको आपके उपासरे में दीपक जले और मैं आपसे ज्ञानगोष्ठि करुं । जीवनविजयने वैसा ही किया । लवंगीने उस रातको उपासरे में दीपक जलाया और साधारण बातचीत के बाद जब उपासरेका दरवाजा बंद करनेकी तैयारी हुई उसी समय पूर्व संकेतानुसार महाराजा मेरामणसिंघ और जैसो लांगो वहाँ आ उपस्थित हुए । उन्होंने बड़े अनुरोधसे प्रवीणसागर के शृङ्गाररसका विभाग पूर्ति करने की उनसे स्वीकृति लेली । इस तरह छलके द्वारा उन्होंने अपना काम बनाया और यतिजीके ब्रह्मचर्यको भी बचाया । कहा जाता है कि प्रवीणसागरमें जो शृङ्गाररसकी धारा बही है वह जीवनविजयकी ही देन है । पता नहीं उपर्युक्त प्रसंग में कुछ तथ्यकी बात है या नहीं, पर जीवन विजय इसी समय एक जैन यति हुए अवश्य है । मेघाणीने अपने “चारणों अने चारणी साहित्य " के पृष्ठ ६० मैं चारण कवि ठारणभाई मधुभाईके घर में सं. १८४०-४५ में जीवनविजय गोरजी और उनके शिष्यों के लिखित " अवतार चरित्र "की प्रति होनेका उल्लेख किया है । जीवनविजय तपागच्छके यति होंगे; उनका उपाश्रय राजकोट में होना संभव है, अतः गुजरात काठियावाड़ के विद्वानोंको इस सम्बन्ध में विशेष अनुसंधान कर तथ्यको प्रकाशमें छाना चाहिये । For Private And Personal Use Only

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