Book Title: Jain_Satyaprakash 1955 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रकी दूसरी प्रशस्ति लेखक :-श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा. 'जैन सत्य प्रकाश 'के अंकमें सं. १५२४में साधु सोमरचित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रकी प्रशस्ति प्रकाशित की गई है उसमें अन्य स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रकी प्रशस्तियोंको क्रमशः प्रकाशित करनेका निर्देश किया गया था तदनुसार यहां दूसरी प्रशस्ति प्रकाशित की जा रही है। यह प्रशस्ति २८ श्लोकोंमें मेरुसुन्दरने सं. १५२१में बनाई है। मालव प्रदेशकी धारानगरीके निवासी श्रीमालवंशके बहकटागोत्रीय संघपति पर्वत और आम्बाने खरतरगच्छके जिनचन्द्रसूरिके उपदेशसे प्रस्तुत स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लिखाया था। यह प्रति वर्तमान बालोतराके भावहर्षीय खरतर शाखाके ज्ञानभण्डारमें है । इसकी प्रशस्तिके तीन पत्र हमारे पूज्य पिता श्रीशंकरदानजी नाहटाकी स्मृतिमें स्थापित 'नाहटा कलाभवन में प्रदर्शित हैं। इनकी स्वर्णाक्षरी स्याही पांचसौ वर्ष हो जाने पर आज भी चमक रही है। प्रतिके किनारे व बीचमें सुन्दर बोर्डर boarder है जिसमें कहीं जिनमूर्ति, कहीं वाजिंत्र बजाते हुए पुरुष, कहीं विविध पक्षी चित्रित हैं। कल्पसूत्रके साथ 'कालककथा' भी अंतमें दी हुई है। बालोतराके उक्त विशिष्ट संग्रहमें एक स्वर्णाक्षरी-रौप्याक्षरी (गंगा-यमुना)से संयुक्त प्रति भी है, जो ७६ पत्रोंकी है और सं. १४७४में लिखित है। यहां यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि स्वर्णाक्षरी प्रतियां सबसे अधिक खरतरगच्छवालोंकी हैं और १६वीं शतीमें ही वह लिखी गई है। इनकी प्रशस्तियांसे धर्मश्रद्धा व तत्कालीन श्रावकोंकी समृद्धिका पता चलता है। १५वीं शतीके उत्तरार्ध और १६वींके पूर्वार्धकी निर्मित धातुप्रतिमादि भी अधिक मिलती है। प्रशस्तिके रचयिता मेरुसुन्दर जिनदत्तसूरिसन्तानीय आचार्य जिनभद्रसूरिके विद्यागुरु वाचक शीलचन्द्रके शिष्य वाचक रत्नमूर्तिके शिष्य थे। जैसलमेरके संभवनाथ मन्दिरकी तपपटिकाके १५०५के मेरु लेखको सं. १५०५में इन्ही मेरुसुन्दरगणीने लिखा था। यह तपपट्टिका इनके गुरु वाचनाचार्य रत्नमूर्तिके उपदेशसे स्थापित की गई थी। इसमें वाचक जिनसेन और पं. हर्षभद्रका भी नाम है। संभवतः वे इनके गुरुभ्राता थे। इस लेखसे सं. १५०५से पूर्व इनको गणिपद मिल चुका था। सिद्ध होनेसे इनका जन्म सं. १४८०के लगभगका होना संभव है। आप अपने समयके विशिष्ट विद्वान थे। गद्यकारके रूपमें आपने जितना लिखा है संभवतः गत शताब्दियोंमें किसीने भी नहीं लिखा । सं. १५१८ से १५३५ तककी आपकी For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28