Book Title: Jain_Satyaprakash 1948 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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द्रव्य का सदुपयोग करनेका अमूल्य स्थान श्रीमरुधरस्थ दीयाणाजी तीर्थ
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समस्त जैनधर्मावलम्बि भाइयों को नम्र निवेदन है कि सिरोहीराज्यान्तर्गत श्री दीयाणाजी तीर्थधाम अत्यन्त प्राचीन एवं पवित्र माना जाता है । यह तीर्थ चरम तीर्थङ्कर श्री वीरप्रभु के जीवित काल का है । यहाँ के गगनचुम्बि बावन जिनालयवाले मन्दिरजी को देखते वक्षु तृप्त नहीं होती। इसमें मूलनायकजी श्री महावीर प्रभुजी विराजित हैं । प्रतिमा की मनोहरता दर्शनीय है । इस तीर्थ की प्राचीनता में ऐसी किम्वदन्ती प्रचलित "है कि अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री नन्दिवर्धनराजा के साथ बिहार करते चरम तीर्थङ्कर श्री वीरप्रभु इस भूमि पर विचरण करते काउसगावस्था में थे, तब श्री नन्दिवर्धन राजाने जीवित स्वामी की भव्य प्रतिमा बनवाकर साक्षात् श्री वीरप्रभु के करकमलों से मूर्ति की स्थापना करवाई थी । अतएव "नाना, दीयाणा अने नांदीया, जीवित स्वामी वांदीया" यह प्राचीनों की उक्ति भी चारितार्थ होती है । यहाँ पर कार्तिक शुक्ला १५ एवं मार्गशीर्ष कृष्णा ८ को दो बडे मेले लगते हैं, जिन में करीब १५०० से लेकर दो हजार यात्रार्थि दर्शनार्थ आते हैं । दोनों दिन नवकारसी नीतोडावाले एवं नांदियावाले महानुभावों की तरफ से होती है । मन्दिरजी के पश्चिमी तरफ एक सुन्दर बावडी भो है । महाप्रभावशाली मनोहर मूर्ति का दर्शन कर सच्चा आनन्द लोग प्राप्त करते हैं ।
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यह तीर्थ बी. बी. एन्ड सी. आइ. रेल्वे के सरूपगंज स्टेशन से करीब १० मील दूरी पर है । समीप में इतिहासप्रसिद्ध केर नामक छोटा गांव है। ऐसे ऐतिहासिक एवं पावन तीर्थक्षेत्र के उद्धारार्थ विद्यानुरागो श्रीश्री १००८ श्रीमद्विजयजिनेन्दसूरीश्वरजी महाराज के बहुकालीन सदुपदेश से श्री दीयाणाजी तीर्थोद्वार कमिटी निर्माण कर पहेले मेले में आगन्तुक यात्रार्थियों को विश्राम के लिये धर्मशाला बनवाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है, जिसमें करीब २०००० (बीस हजार ) के व्यय का अनुमान किया जाता है । अतएव समस्त जैन धर्मानुरागियों को ऐसे सत्कार्य में अपने द्रव्य का सदुयपोग करने का एवं जीर्णोद्वार में नवगुणित पुण्यराशि प्राप्त करने का सुअवसर अपनाकर अवश्यमेव सहायता प्रदान करके अपनी उदारता का परिचय देना चाहिए। शास्त्रों में भी कहा है कि उपार्जितानां वित्तानां याग एव हि रक्षणम्, अर्थात् उपार्जित द्रव्यों का त्याग ही खास रक्षण है। जैसे तालाबों के पानी में से ऊपर के पानी का त्याग होने पर ही भीतरी पानी का रक्षण
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