Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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१२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[वर्ष १२ धर्मियों द्वारा ही छीनी जाने का उदाहरण प्रस्तुत कर क्या विधर्मी शासकों को यह अधिकार देना नहीं है कि हिन्दु-मन्दिरों की देवनिधि का कोई भी हकूमत या स्वेच्छा से किसी दूसरे काममें उपयोग कर सकता है ?
केसरियाजी आदि तीर्थों की जनता द्वारा भेंट देवनिधि प्रताप विश्व-विद्यालय के लिये तो नहीं की गई थी ? उसे तो उन्हीं तीर्थों की दशा सुधारने में तथा वहां की जनता की इच्छा से वहां के धार्मिक कार्यो की उन्नति में लगाया जा सकता था। मगर यह न कर किया गया ठीक इसका उलटा ।
विश्व-विद्यालय खोले महाराणा, नाम हो महाराणा का, मगर खर्च लिया जाय जनता द्वारा पाई पाई कर संचित देव-द्रव्य-निधि से ! क्या खूब है !! यदि ऐसा ही था तो इस शुभ कार्य में उन धार्मिक समुदायों, जो सारे देश के कोने २ से अपनी धर्म-भावना लिये अपने इन तीथी में पहुंचते और सश्रद्धा धन दान करते हैं की राय क्यों न लेली गई ?
श्री क० मा० मुंशी बैरीस्टर हैं। बैरीस्टर के नाते अपनी तर्क बुद्धि से वे रात को दिन और दिन को रात सिद्धि कर सकते हैं। यह मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं । मगर श्री मुंशी न भूले कि वे कोर्ट बैरोस्टर नहीं, 'गांधीवादी बैरीस्टर ' हैं। सत्य अहिंसा के पक्के समर्थक हैं। पूज्य बापूने कहा था-" सत्य अहिंसा को खोकर मैं भारतको आजादी भी कबूल नहीं करूंगा।" उन्हीं बापु के पदचिह्नों के अनुगामी और मेवाडी महाराणा के परामर्शदाता से ऐसी बड़ी भूल और अन्याय कैसे हो गया, आश्चर्य है !
___ यदि मेवाड की सत्ता आज प्रताप विश्व-विद्यालय के लिये मंदिरों की देवस्थान निधि हड़प सकती है तो कल भोपाल या निजाम, या जावरा भी किसी उर्दू-युनिवर्सिटी के लिये अपने शासनांतर्गत हिन्दु-देवस्थानों तथा तीर्थो की अपार सम्पदा पर अपने हक का दावा कर सकती हैं। यदि पहली बात सही है, तो दूसरी भी दुरुस्त होनी ही चाहिए। ____ अतः मेवाड़ के नये विधान में श्री एकलिंगजी के राज्य में श्री केसरियाजी आदि तीर्थ-देवताओं की धर्मनिधि को विश्व-विद्यालय निधि के रूपमें जो घोषित किया जा रहा है उसे तुरन्त ज्योंकी त्यों रहने का ऐलान किया जाय ।
देव-द्रव्य में से यदि कुछ राशि विश्व-विद्यालय को देना ही है तो न्यायानुसार उस धार्मिक जनता का मत जान लिया जाय जिसकी 'बूंद-बूंद' भेंट हो वह अपार निधि है।
यदि ऐसा नहीं हुआ और चन्द 'बड़ों की मर्जी' ही सर्वोपरि मानी गई तो हमें डर है कि भारतकी हिन्दू और जैन मतावलम्बी जनता अपनी तीर्थनिधि की रक्षा में उसी तरह धर्म-युद्ध छोड देगी जिस तरह कि कोई सद्गृहस्थ अपने घर की लुटती लाज बचाने में सब शक्ति लगा देता है।
--" ध्वज" ता. २२-७-४७
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