Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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म १० જેને વર્તમાનપત્રોના અભિપ્રાય
___ मंदसौरथी प्रगट यतुं "ध्वज" साप्ताहिक
" एकलिंगजी के राज्य में"। भारत धर्मप्रधान देश है। यहां राजनीति भी धर्म के पीछे चलती है। संसार के दूसरे देश भले ही राष्ट्र और राष्ट्रीयता को पहला और धर्मको दूसरा स्थान दें, मगर भारत वह देश है, जो धर्म को सर्वप्रथम और शेष सब को गौण समझता है । जिना साहब की जिद का प्रत्यक्ष परिणाम ' हिन्दु-विभाजन' इसका ताजा सबूत है।
ऐसे धर्म-प्रधान भारत की उस धर्मजीवी रियासत में जहां की उज्ज्वल वंश-परम्परा की वर्तमान कडी महाराणा श्री भूपालसिंहजी अपने राज्य को भगवान एकलिंगजी का राज्य बता कर स्वयं को उनका मंत्री घोषित कर शासनचक्र चलाते है, जब वहां मंदिर-निधि को विधान की जंजीर में कस कर भगवान को एक कोने में रख उसे विश्व-विद्यालय की अधिकृत सम्पति घोषित कर देते हैं तब धार्मिक जनता वास्तविक राज्याधिकारी (एकलिंगजी) के दरबार में उनके मन्त्री ( महाराणाजी ) के स्वेच्छाचारी अन्याय के विरुद्ध स्वरोन्नत करती है तो क्या बुराई करती है ?
हम विश्व-विद्यालय के विरोधी नहीं, न ज्ञान-यज्ञ के रोडे ही हैं । हम तो महाराणा द्वारा संस्थापित उद्घाटित संचालित इस हिन्दी विश्व-विद्यालय से इतने अधिक प्रसन्न और गद गद हैं कि स्वयं महाराणा भी शायद न होंगे। मगर विश्व-विद्यालय को द्रव्य-सहयोग का जो मार्ग जिस ढंग से अपनाया गया है हम उससे सहमत नहीं हो सकेंगे।
सुना है कि मेवाड के मंदिरों की देवनिधि का काफी बडा भाग जबरदस्ती, बिना किसी से पूछे ताछे प्रताप विश्व-विद्यालय को दिया जा रहा है। जिस लाखों भकजनसमुदाय ने अपने मंदिरों और तीर्थों में वर्षों से आज तक अपनी गांठ और तिजोरियां श्रद्धाके वशीभूत हो कर खाली कर दी है उस देव-द्रव्य की छाती पर प्रताप विश्व-विद्यालय उसी तरह आ कर चढ़ बैठा है जिस तरह मेवाडी जनता की छाती पर मद्रासी प्राइम मिनिस्टर श्री टी. वि. राघवाचार्य महोदय आसीन हो गये थे । अफसोस है तो यही कि भक्ति की 'लक्ष्मी' पर सरस्वती देवी को दानवी बना कर बलात् चढाई करने के लिये धकेला जा रहा है और वह भी सरस्वती-भारती के तेजस्वी वरद पुत्र श्री क० मा० मुन्शी के करों द्वारा । कैसी विडम्बना है? आजतक लक्ष्मी सरस्वती पर अत्याचार करती रही, अपनी रौनक दिखा कर वह सीधी सादी सरस्वती को चिढाती रही, मगर आज यह उलटा व्यापार अशोभनीय और नयन-कटु हो उठा है। 'जय सोमनाथ ' का मुंशी क्या मेवाड में गजनवी के इतिहास को पुनः दुहराना चाहता है ? हिन्दुओं की देवनिधि इस तरह सह
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