Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ વર્ષ ૧૧ . धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्ग धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥ धन पृथिवी पर पड़े रह जाते हैं, पशु गोष्ठ (पशुस्थान )में रह जाते हैं, स्त्री घरके द्वार पर रह जाती है, लोग (सम्बन्धी) श्मशानमें रह जाते हैं, देह चितामें जल जाता है, ये सबके सब ज्योंके त्यों यहीं रहते हैं लेकिन धर्म परलोकमें भी जीवके साथ जाता है। इसी तरह धर्मके महत्वको वर्णन करते हुये एक धर्ममर्मज्ञ कवि कहते हैं कि. न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्म जहेजीवितस्यापि हेतोः । धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ - कामसे या भयसे वा लोभसे वा जीवनके लिये भी किसी समयमें किसी तरह भी धर्मको नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि धर्म नित्य है और काम क्रोध लोभ मोह आदिसे उत्पन्न सुख दुःख अनित्य हैं तथा जीव नित्य है यार इस जीवका कारण (कर्मफल) अनित्य है। सारांश यह निकला कि जीव और धर्म ये नित्य हैं और काम क्रोधादिसे उत्पन्न सांसारिक सुख दुःख अनित्य हैं। (क्रमशः) नडियादके प्रतिमालेखौके स्पष्टीकरणकी कुछ भ्रामक बातें लेखक:-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा 'श्री जैन सत्य प्रकाश 'के गत अंक (क्रमांक १२५)में नडियादके प्रतिमालेखों के सम्बन्धमें स्पष्टीकरण करते हुए वैद्यजीने कई गलत अनुमान किये हैं उनपर प्रकाश डालना आवश्यक समझकर कुछ संशोधन उपस्थित करता हूं, आशा है उससे गलतफहमियां दूर होंगी। १. नागेन्द्रगच्छके साथ नागदह ग्राम एवं नागर ज्ञातिका कोई सम्बन्ध नहीं है। २. सिद्धसेनसूरि सिद्धसेन दिवाकरसे भिन्न प्रतीत होते हैं; इनकी एकताके लिए अन्य प्रमाण अपेक्षित हैं। ३. रुद्रपल्लीय गच्छकी आचार्यपरम्पराका सं. १६८५ तक होने का व भावतिलकसूरि आचार्यका नाम बतलानेका आधार क्या है ? वैद्यजी इस पर प्रकाश डालें । ४. 'अमरकोश'को आगमगच्छीय अमरसिंहसूरि (सं. १४७५)की कृति बतलाना सर्वथा ऐतिहासिक सत्यसे विपरीत है, 'अमरकोश' बहुत प्राचीन ग्रन्थ है। उसके निर्माता अमरसिंह भिन्न ही हैं। लेखकका सुमतिनाथ सत्यदेव प्रबन्ध' कहां प्रकाशित है ? ६. श्री श्रीवंशको प्राचीन लिच्छवी उर्फे हैहयवंशसे सम्बन्धित बतलाना भी सही नहीं है। लेखमें निदर्शित श्रीश्रीवंश मेरे नम्र मतानुसार अंचलगच्छके आचार्योंसे सम्बन्धित है एवं १५ वौं शताब्दिसे ही प्रकाशमें आया है, जैसाकि वैद्यजी बतलाते हैं। यह वंश इतना प्राचीन होता तो कहीं तो इसका प्राचीन उल्लेख पाया जाता, पर उसका सर्वथा अभाव है। For Private And Personal Use Only

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