Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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१६. ] શ્રી જૈન સત્યપ્રકાશ
[वर्ष ११ __ अर्थात् , भोजन, नींद, भय और मैथुन ये चारों प्रायः मनुष्य और पशु में समान ही हैं। तो क्या मनुष्य और पशु दोनों समान है ? इसी प्रश्न के उत्तरमें उत्तरार्ध है कि मनुष्य
और पशु में धर्म ही एक ऐसी विशेष वस्तु है, जो दोनों को कुछ कुछ अंशोमें एक क्रिया के होते हुये भी दो बनाती है, अतः मनुष्य हो कर भी जो धर्म से हीन है वह पशुके समान है अर्थात् नरपशु है । पशुका अर्थ है सबको अविशेष रूपसे देखनेवाला प्राणी । संस्कृत साहित्य में भी इसकी व्युत्पत्ति इसी तरह है-"सर्व अविशेषेण पश्यतीति पशुः"। जब धर्म से हीन मनुष्य को पशु कहते हैं तो इसीसे यह सिद्ध हो गया कि मननशील ( विचार करनेवालों ) को मनुष्य कहते है, अथवा संस्कृत साहित्यमें इसको यो स्थान दे सकते हैं कि-" मन्-ज्ञाने, मन्यते इति मनुः, मनोरपत्यं पुमान् मनुष्यः अर्थात् सर्व सविशेषेण पश्यतीति मननशीलो मनुष्यः । " सारांश यह निकला कि सम्यग् दर्शन का नाम धर्म है। धर्म के विशेष रूपसे लक्षण आगे कहेंगे। यह प्रथम श्लोककी विवेचना हुई। दूसरे श्लोकमें चार प्रकारके पुरुषार्थ कहे गये हैं । प्रथम धर्म, दूसरा अर्थ, तीसरा काम और चौथा मोक्ष-ये चारों बातें पुरुष के प्रयोजन (जरूरत) की हैं अतः इसका नाम चार पुरुषार्थ अथवा पुरुषार्थचतुष्टय है। अर्थात् इस दुनियामें कोई भी ऐसा पुरुष न होगा जो इन चारोंमें किसी एकका सेवन न करता हो । कोई धर्मके लिये सर्वस्व समर्पण करता है तो कोई अर्थ के लिये प्राणके मोहको और प्रिय परिवार तकको भी छोड देता है तो कोई काम में अन्ध होकर बेशुध हो जाता है तो कोई मोक्षके लिये विश्व के विभव-लौकिक ऐश्वर्य को तृणके समान जानता हुआ परम पद का जिज्ञासु होता है । कहनेका मतलब यह कि मनुष्य उपर्युक्त चारों प्रयोजनोंमें से किसी न किसी एक प्रयोजन में अवश्य ही रहता है। हां, यह दूसरी बात है कि किसी में अधिकतर एक ही रहता, किसी में दो और किसी में तीन की भी न्यूनाधिकता देखी जाती है। और ये धर्मादिक चारों प्रयोजन मनुष्य के ही लिये कहे गये है, क्यों कि मनुष्यके अतिरिक्त प्राणीमें ये चारों के चारों किसी तरह भी लागू नहीं हो सकते हैं । अतः धर्मके मर्मको जाननेवाले विदुरदर्शी ऋषि मुनियोंने मनुष्य के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार प्रयोजन बतलाये हैं। यह दूसरे श्लोक का सारांश निकला । फिर
तत्र सर्वप्रधानं हि शश्वत्कल्याणमन्दिरम् । कैवल्यं केवलिप्राप्तं सन्तः प्रोचुः सुदुर्लभम् । परं सुदुर्लभस्यापि मोक्षस्य प्राप्तिरिष्यते । धर्मेणैव तथार्थस्य कामस्य च सुखेन हि ॥
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