Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 03
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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म નિબ્રન્ત-તત્ત્વાક
[१६१ उन चारों धर्मादिक प्रयोजनो में संर्व प्रधान कैवल्य (मोक्ष) ही है, वह कैवल्य (परमपद ) शश्वत्कल्याणका मन्दिर है और वह मोक्षपद केवलियों कि कृपा से प्राप्त होता है वा सर्वज्ञ होने पर ही मोक्ष पदकी प्राप्ति होती है। वस्तुतत्त्वदर्शी संत, मुनि, महात्मा उस मोक्ष पद को अत्यन्त दुर्लभ बतलाते हैं।
यहां मोक्ष को चारों पदार्थों में प्रधान माना जाता है और यह सर्वथा युक्त है। क्यों कि दुनिया में जितनी भी प्रवृत्तियां हैं किसी न किसी रूपमें किसी के सुख के लिये ही हैं, किन्तु जिनते भी सांसारिक सुख हैं प्रायः सभी नाशवान् है अस्थिर हैं। सांसारिक सभी सुखों में राग द्वेष रहता है इस लिये ये सुख सच्चे सुख नहीं; किसी समय दुःख के कारण हो जाते हैं। वास्तविक सुख तो वह है जो हमेंशा एक रस में रहनेवाला है अविनाशी है। इसी लिये मोक्षको सर्वप्रधान कहा गया है । उस कैवल्य पदको मुनियोंने अत्यन्त दुर्लभ कहा है, क्यों कि एक देश विशेष के कारावास से, जहां कि जेलर आदि का विशेष प्रबन्ध रहता है, निकलना कठिन है तो फिर इस अनन्त संसाररूप महाकारावाससे, जहां कि कर्मफल रूप जेलखाने के असंख्य पहेरेदार सिपाही दिन रात खड़े रहते हैं निकलना असंभव नहीं तो महाकठिन और अत्यन्त दुर्लभ अवश्य है । वह मोक्षपद केवली ( भगवान ) की कृपासे प्राप्त किया जा सकता है वा केवलपनेसे प्राप्त हो सकता है किंवा केवलीके द्वारा प्राप्त किया जाता है । केवलका मतलब है अनन्य-मुख्य-एक, उससे दूसरा कोई नहीं ऐसा । और जिसमें केवलपना है वह केवली कहलाता है। अर्थात् वह सर्वोपरि एक ही ज्ञानी है उससे परे ज्ञानी कोई नहीं है इस लिये उसका नाम केवली है। इसी तरह वह सर्वोपरि एक ही सम्यग्दशी है इसी लिये उसका नाम केवली है, और कोशादिकों में केवल शब्द का कृत्स्न ( समग्र) भी पर्याय है इसी लिये केवली को सर्वज्ञ भी कहते है; ज्ञान का अनन्तत्व होने से ज्ञेय अल्प हो जाता है इस लिये उस केवली (भगवान् ) को सवेज्ञ कहते है । उस सर्वज्ञ प्रभु -केवली को " अणोरणीयान् महतो महीयान् " यानी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और स्थूल से भी स्थूल कालका बोध रहता है इस लिए उमे त्रिकालाबाधितबोध वीतराग सर्वज्ञ आदि नाम से सभ्य लोग पुकारते हैं। उपर्युक्त विशेषणयुक्त सुदुर्लभ मोक्षकी भी प्राप्ति धर्मसे ही होती है तथा अर्थ (धन) और काम इन दोनोंकी भी प्राप्ति धर्मसे ही अच्छी तरह सुखपूर्वक होती है, इसलिये धर्मका महत्व उच्चतम है। वास्तवमें इस असार संसारमें धर्मके समान श्रेष्ठ और सच्ची सहायक कोई चीज नहीं है। धर्म ही लोगोंकी विपत्तियोंमें सच्चा सहायक होकर दुःखको दूर करता है, धर्म हो सच्चा मित्र है,
और धर्म ही माता-पिताके समान सच्चा पालक और रक्षक है । संसारके सभी सम्बन्धी सभी पदार्थ इस नश्वर शरीरके साथ यहीं रह जाते हैं, किन्तु धर्म जन्मान्तरमें भी जीवके साथ जाता है और अपने पुण्यप्रभावसे विपत्तिको हटाकर जीवोंको सुख शान्तिका प्रदान करता है। शास्त्रकारोंने भी कहा है कि
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