Book Title: Jain Satyaprakash 1940 08 SrNo 61
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५२] શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ चिट्ठउ दूरे मंतो जो ज्झायई नियमेष एगंतो । तुह नाम संभंतो सो जायइ लच्छिमहमंतो ॥१०॥ न य उसइ दुट्ठभोइ तुज्झपणामोवि बहुफलो होए । तुहनामेण विजोई न हवइ न पराहवा कोई ॥११॥ नरतिरिएसु वि जीवा भमंति नरएसु कायरा कीया । समियजिणसमयदीवा जेहिं तुह नामिया जीवा ॥१२॥ रिद्धिं आहेवञ्च पावति न दुक्खयोग । जे तुह आणासचं पासति य भावओ निशं ॥१३॥ तुह समत्ते लद्धे जीवाणं हवप सासए सिद्ध । अणुवमतेअसमिद्धे अणंत तुह नाणसंबखे ॥१४॥ तुह सुरनरवरमहिए चिंतामणिकप्पपायवमहिए । पयकमले मलरहिए मणभसलो वसउ महसुहिए ॥१५॥ पावंति अविग्घेणं जीवा जइ दुट्टदोसबग्घेणं ।। न नडिज्झंति असिग्घेणं भवपारं चिहियवग्घेणं ॥१६॥ सासयसुखनिहाणं जीवा अयरामरं ठाणं । लम्भंति तुह पयाण जेसिं षट्टा मणे साणं ॥१७॥ (उपनीति) इय संथुओ महायस किति दित्ति धिां च मह पवस । वयणरस्स विजियपास निम्नासियदुरिय हयअयस ॥१८॥ कलिमलमइरहिएणं भत्तिभरनिडभरेण हियएणं । थुणिओ हियसहिएण मइ तुम कम्मवहिपणं ॥१९॥ ता देव दिज बोहिं ठवेमि लम्हा पयंमि तुह गेह । कयपावस्स यसोहि कुणसु भवारण्णभमणेहिं ॥२०॥ अवगयपवयणनिस्संद भवे भवे पास निणचंद । तुहपयपंकयमयरंद भसलतं भवओ महचद ॥२१॥ उवज्झाय 'हरिसकल्लोल'सीसेण भहबाहुण्यस्म । संथवणस्स समस्सा विहिया बुहाण य पमस्सा ॥२२॥ इत्युपसर्गहरस्तवाम्नायसंप्रदायगर्भावभ्रशुभ्रकत्र विचित्रपत्रमंत्र जीवात् । पं० 'लक्ष्मीकल्लोल'गणिकृतं समस्यास्तोत्रम् । इस स्तोत्र की नकल हमारे संग्रह में की १७वीं शताब्दी लिखित पक हस्तलिखित प्रत से की है। For Private And Personal Use Only

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