Book Title: Jain Satyaprakash 1935 10 SrNo 04
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिगम्बर शास्त्र कैसे बनें ? २ संघभेद (गतांकसे चालु) लेखक:-मुनि दर्शनविजयजी आचार्यने समय पा कर उस वस्त्र का ग्रह त्याज्य है। शिवभूतिने क्रुद्ध होकर टुकडा बना कर सब साधुओं को बांट सुनाया कि-यदि ऐसा ही है, तो में दिया । सर्वथा वस्त्रांको हो छोड हुँ । बस ? अब पुछना ही क्या था ? आचार्यने फरमाया कि यह शिवभूतिजीके दिलमें साहसिकता उछल मार्ग अब उच्छिन्न है,२३ जो आई, उसे अपमान का ख्याल होने दृढसंघयनवाला है, सर्वसह है, लगा। शिवभूतिने आचार्यसे पूछा ? नौ पूर्वोसे अधिक ज्ञानी है, हाथ में मेरा रत्नकंबल क्यों फाडा ? आचार्यने डाले हुए पानी का एक-बून्द भी न फरमाया कि-वस्त्र संयमरक्षाके साधन गिरे यानी पानीकी शिखा उपर बढती मात्र हैं, उसमें मूर्छा होते ही परिग्रह रहे ऐसे लब्धिसंपन्न है वो मुनिजी नंगा -दोष माना जाता है, अपने को परि- रहना चाहे तो गुरुकी आज्ञा से नंगा २३ यहां दिगम्बर लेखकोंको यह दलील है कि-शिवभूतिने नया क्या किया? जो मार्ग विच्छेद हो गया था उसको फिर से प्रचलित किया, इसमें नाविन्यता क्या है ? । परन्तु इसका उत्तर तो बहुत सरल है-महावीरके पश्चात् तीर्थङ्कर पद विच्छेद हुआ, और जम्बूस्वामीसे केवलज्ञानादि दस वस्तु विच्छेद हुई, भद्रबाहु आदिसे पूर्वोका ज्ञान नष्ट हो गया। यह बात तो हमारे दिगम्बर मित्र भी स्वीकार करते है । अगर कोई नवीन मतप्रवर्तक यों कह दें कि केवलज्ञानादि विच्छेद हुए हैं उनको मैं पुनः प्रवर्तित करता हुं, तो उसका कथन कोई स्वीकार कर सकता है ! कहना हो होगा कि नहीं ॥ ६-श्वे० म० स० दि० पृष्ट ॥-२६३ For Private And Personal Use Only

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