Book Title: Jain Sanskruti me Nari Ka Mahattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 2
________________ जैन संस्कृति का आलोक करती है जबकि उन्हें एक बहू, बेटी, माँ, बहन या पत्नि का कर्तव्य भी निभाना पड़ता है। पुरुषवर्ग यह कहकर अपने दायित्व से हट जाते हैं कि हमें व्यापार, वाणिज्य- प्रवास आदि कार्य में व्यस्त रहना पड़ता है अतः नियम का पालन संभव नहीं। धर्म के मर्म को जितनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से महिला वर्ग ने देखा, जांचा एवं परखा है, उतना पुरुषवर्ग ने नहीं और यही कारण है कि आज जैनधर्म के उत्थान में, प्रचार-प्रसार में नारी की भूमिका अहम् है, प्रशंसनीय है, स्तुत्य है। जैन संस्कृति में नारी की महिमा और गरिमा अद्वितीय है। प्राचीन काल में नारी जैन संस्कृति की सजग प्रहरी थी, वह एक ज्योति-स्तंभ के रूप में रही थी। इतना ही नहीं वह अध्यात्म चेतना और बौद्धिक उन्मेष की परम- पुनीत प्रतिमा थी। अध्यात्म शक्ति का चरम उत्कर्ष 'मुक्ति' स्त्री वाचक शब्द ही है। नारी शांति की शीतल सरिता प्रवाहित करनेवाली है और आध्यात्मिक क्रान्ति की ज्योति को जगमगाने वाली भी है। वास्तविकता यह है कि वह शान्ति और क्रान्ति की पृष्ठभूमि निर्मित करती है। मानवता की रक्षा, आत्मा की संरक्षा वह माता के रूप में ही कर सकती है। माता निर्मात्री है। संसार में अगर कोई देव और गुरु के समान वंदनीय - पूजनीय है तो वह सिर्फ माता ही है। मानव में जो कमनीय और कोमल भावनाएँ है, वे माता की ही देन है। माता से ही मानव (पुत्र) उत्पन्न होता है। मानव का मस्तिष्क, मांस और रक्त यह तीन महत्वपूर्ण अंग माता से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए पुत्र माता का कलेजा है। माता का अगाध वात्सल्य इसी पुत्र को प्राप्त होता है। दुनिया के महान् से महान् आत्माओं को जन्म देने वाली नारी है, माता है। तीर्थंकर भी नारी के कोख से ही जन्म लेते हैं। जिस माता ने तीर्थंकर को जन्म दिया उनकी पावनता वचनातीत है। उनके लिए तो यहाँ तक कहाँ गया है कि - संसार में सैकड़ों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती है किंतु हे भगवन् ! आप जैसे अद्वितीय अनुपम पुत्ररत्न को जन्म देने वाली स्त्री एक ही हो सकती है। अतएव उसके अनेक नामों में 'जनिः' नाम सर्वथा सार्थक है। माँ अपने रोम-रोम से अपने पुत्र का हित साधन करती है। हम इस सृष्टि-जगत् को भी धरती माता कहते हैं। वह जगज्जननी के विशिष्ट रूप में सृष्टि करती है। सरस्वती के रूप में विद्याप्रदान करती है। असुर नाशिनी के रूप में सुरक्षा देती हैं, लक्ष्मी के रूप में अपारवैभव सौंपती है और शान्ति के रूप में बल का अभिसंचार करती है। तात्त्विक विभेद नहीं । जैन साहित्य का सर्वेक्षण करने पर स्पष्टतः प्रतीत होता है कि अतीत काल में श्रमणियों का संगठन सुव्यवस्थित एवं अद्वितीय था। जिस युग में जो तीर्थंकर होते थे वे केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध संघ श्रमण-श्रमणी, श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका की संस्थापना करते हैं। जिसे आगमिक भाषा में तीर्थ कहा जाता है। जिन धर्म का मूलभूत महास्तंभ तीर्थ है। तीर्थंकर व तीर्थकरत्व तीर्थ पर आधारित है। तीर्थंकर जब समवशरण में धर्मदेशना देते हैं उस समय वे तीर्थ को नमस्कार करते हैं। उक्त सार्थक नाम नारी के बहुविध पर्यायार्थक नाम उसके कार्यों और स्थितियों के अनुसार व्यवहृत हैं। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से 'नारी' शब्द का संधि विच्छेद इस प्रकार हैं - न + अरि इति नारी- जिसका कोई शत्रु नहीं है, वह नारी है। उसने आध्यात्मिक और साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति कर पुरुषों को गौरवान्वित किया है। अतः वह 'योषा' कहलायी, गह नीति की संचालिका होने से वह 'गहिणी' कहलाती है। पूजनीया होने के कारण वह 'महिला' शब्द से अभिहित है। नारी जीवन के उच्चतम आदर्श का शुभारंभ और समापन ‘मातृत्व' में हुआ है। 'माता' नाम से अधिक पावन आध्यात्मिक नाम नारी का दूसरा नहीं हो सकता। | जैन संस्कृति में नारी का महत्व १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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