Book Title: Jain Sanskruti me Nari Ka Mahattva Author(s): Dharmashilashreeji Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 6
________________ का प्रयत्न किया। यह अद्भुत पुरुषार्थ विश्वशान्ति का प्रेरक था । साधना के क्षेत्र में श्रमणी संघ वस्तुतः सफल रहा है। कहीं पर भी असफल होकर (वेरंग-चिट्ठी की तरह) नहीं लौटा। अपने आराध्य तीर्थपति आचार्य-गुरु के साथ ही गुरुणीवर्या के शासन संघ (अनुशासन - आज्ञा ) में सदैव समर्पित रहा है - श्रमणीसंघ । देश कालानुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का प्रतिरोध - प्रतिकार किया है - श्रमणीसंघ ने, किंतु संघ के प्रति विद्रोह किया हो या प्रतिकूल श्रद्धा - प्ररूपणा स्पर्शना का नारा बुलंद किया हो ऐसा कहीं पर आगम के पृष्ठों पर उल्लेख नहीं मिलता है। विविध प्रकार के तप त्यागमय प्रवृत्ति में साध्वी - समूह ने अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया है । मगधाधि सम्राट् श्रेणिक की पट्टरानियाँ काली-सुकाली-महाकालीकृष्णा-सुकृष्णा-महाकृष्णा- वीरकृष्णा-रामकृष्णा- पितृसेनमहासेन - कृष्णा तथा नंदादि तेरह और प्रमुख रानियों ने भगवान् महावीर के धर्मसाधना संघ को चार चांद लगाये । तपाचार में अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया । रत्नावली तप, कनकावली, लघुसिंह निष्क्रिड़ीत, महासिंह निष्क्रिड़ीत, सप्त- सप्तमिका, अष्टम- अष्टमिका नवम - नवमिका, दशमदशमिका, लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर तप मुक्तावली स्थापना, इसतरह तपसाधना क्रम को पूरा किया। भ. महावीर की माता देवानंदा (जिनकी कुक्षि में भ. की आत्मा बयासी रात्रि रही ) पुत्री तथा बहिन ने भी भगवान् के शासन में जैन आर्हती दीक्षा स्वीकार की । तप-जप संयम-साधना आराधना की गरिमा-महिमा मंडित पावन परंपरा में वे ज्योतिर्मान साधिकाएँ हो गईं। इसके पश्चात् भी समय-समय पर अनेकानेक संयम-निधि श्रमणियाँ हुई जिन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की । यद्यपि संख्याओं की दृष्टि में आज का श्रमणी संघ उतना विशाल नहीं है। छोटे-छोटे विभागों में विभक्त है । तथापि यह वर्तमान का श्रमणी समूह महासाध्वी चंदनबाला काही शिष्यानुशिष्या परिवार । क्योंकि श्रमणी नायिका जैन संस्कृति में नारी का महत्व Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक चन्दनबाला थी । देश - कालानुसार भले ही कुछ आचार संहिता में परिवर्तन हुआ है फिर भी मूलरूपेण उसी आचार प्रणाली का अनुगामी होकर चल रहा है। कई शताब्दियाँ बीत गई । चन्दनबाला के संघ शासन में एक से एक जिन धर्म प्रभाविक श्रमणियां (वर्तमान दृष्टि से पृथक पृथक सम्प्रदायों में ) हुई। वर्तमान में कुछ वर्षों पूर्व से भी अनेकानेक जिनशासन रश्मियाँ जैनजगत् में विद्यमान है। कई तपोपूत साध्वियाँ हिंसकों को अहिंसक व व्यसनियों को निर्व्यसनी बनाने में कटिबद्ध रही हैं । कई महाभाग श्रमणियों ने धर्म के नाम पर पशु बलियाँ होती थी उसे बन्द करवाईं। ऐसे कार्यों में भी वे सदैव तत्पर रहीं, तथा है । श्रमणियों का श्लाघनीय योगदान वस्तुतः जैन संस्कृति के कण-कण और अणु-अणु में जो प्रभाव मुनि श्रमणसंघ का रहा है वैसा ही अद्वितीय अनूठा प्रभाव गौरव श्रमणी जगत् का भी रहा है । जिनवाणी के प्रचार-प्रचार - प्रभावना में अतीत की महान् श्रमणियों का श्लाघनीय योगदान रहा है । विधि-निषेध का कार्य क्षेत्र जो श्रमणों का रहा है वही श्रमणी जगत् का । लोमहर्षक-प्राणघातक परिषह उपसर्गों के प्रहार जितने श्रमणी जगत् ने सहे हैं, प्राणों की कुर्बानी देकर भी धर्म को बचाया । शील-संयम की रक्षा की और इतनी सुदृढ़ रही कि आततायियों को घुटने टेकने पड़े हैं। यहाँ तक कि मनुष्य ही नहीं, पशु - दैविक जगत् भी श्रमणी जीवन (चरणों में) के सम्मुख नतमस्तक हो गया । आदरणीय सन्नारियाँ श्रमणी न केवल ज्योति है अपितु वह अग्नि शिखा भी है । वह अग्निशिखा इस रूप में है कि अपने जन्मजन्मांतरों के कर्मकाष्ठ को जला देती है और उसके पावन सम्पर्क में समागत भव्य आत्माएं भी अपने चिरसंचित कर्मग्रास को भस्मसात् कर देती है। जैन धर्म नारी के सामाजिक महत्व से भी आँखे मूँद कर नहीं चला है । For Private & Personal Use Only १४१ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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