Book Title: Jain Sanskruti me Nari Ka Mahattva Author(s): Dharmashilashreeji Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 8
________________ वर्तमान में नारी किसी भी बात में पीछे नहीं है, पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है । सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा, विजयलक्ष्मी पंडित, मदर टेरेसा जैसी महान् नारियाँ जागृत नारी शक्ति का परिचायक है । देश भक्तिनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता तथा मेवाड़ की पद्मिनी इत्यादि सुकुमार नारियों का जौहर याद करे तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । पन्ना धाय के अपूर्व त्याग ने ही महाराणा उदयसिंह को मेवाड का सिंहासन दिलाया, जिससे इतिहास ने नया मोड़ लिया। इसी तरह अनेक नारी रत्नों ने अपने त्याग व बलिदान एवं सतीत्व के तेज से भारतवर्ष की संस्कृति को समुज्ज्वल बनाया । महर्षि रमण का कहना है – “पति के लिए चरित्र, संतान लिए ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया, तथा जीव मात्र के लिये करुणा संजोनेवाली महाप्रकृति का नाम ही नारी है । वह तप, त्याग, प्रेम और करुणा की प्रतिमूर्ति है । उसकी तुलना एक ऐसी सलिला से की जा सकती है जो अनेक विषम मार्गों पर विजयश्री प्राप्त करते हुए सुदूर प्रान्तों में प्रवाहित होते हुए संख्यातीत आत्माओं का कल्याण करती है । उसमें पृथ्वी के समान सहनशीलता, आकाश के समान चिंतन की गहराई और सागर के समान कल्मष को आत्मसात कर पावन करने की क्षमता विद्यमान नारी की तुलना भूले-भटके प्राणियों का पथ प्रदर्शित करनेवाले प्रकाशस्तंभ से की जा सकती है। उसके जीवन में राहों की धूल भी है, वैराग्य का चन्दन भी है और राग का गुलाल भी है । वह कभी दुर्गा बनकर क्रान्ति की अग्नि प्रज्वलित करती है तो कभी लक्ष्मी बनकर करुणा की बरसात । नारी : प्रथम गुरु ! नारी इस सृष्टि की प्रथम शिक्षिका है, वही सर्वप्रथम विश्वरूपी शिशु को न केवल अंगुली पकड़कर चलना सिखाती है अपितु गिरकर फिर उठकर चलने का पाठ भी जैन संस्कृति में नारी का महत्व ײן Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक पढ़ाती है। नारी समाज का केंद्र बिंदु है । बाल संस्कार और व्यक्तित्व निर्माण का बीज समाहित है - नारी के आचार-विचार और व्यक्तित्व में ! उन्हीं बीजों का प्रत्यारोपण होता है, उन बाल जीवों के कोमल हृदय पर जो नारी को मातृत्व का स्थान प्रदान करते हैं। समाज ने नारी को अनेक दृष्टियों से देखा है, कभी देवी, कभी माँ, कभी पत्नी, कभी बहन, कभी केवल एक भोग्यवस्तु के रूप में उसे स्वीकार किया है। समाज की संस्कारिता और उसके आदर्शों की उच्चता की झलक, उसकी नारी के प्रति हुई दृष्टि से ही मिलती है। इस तरह नारी के पतन और उत्थान का इतिहास समाज में धर्म और नीति की उन्नति और अवनति का प्रत्यारोपण कराता है । नारी बिन नर है अधूरा पुरुष बलवीर्य का प्रतीक होते हुए भी नारी के बिना अधूरा है। राधा बिना कृष्णा, सीता बिना राम और बिना गौरी के शंकर अर्द्धांग है। नारी वास्तव में एक महान् शक्ति है । भारतवर्ष ने तो नारी में परमात्मा के दर्शन किए हैं और जगद्जननी भगवती के रूपों में पूजा है । नारी समाज का भावपक्ष है, नर है - कर्मपक्ष । कर्म को उत्कृष्टता और प्रखरता भर देने का श्रेय भावना को है । नारी का भाव - वर्चस्व जिन परिस्थितियों एवं सामाजिक आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में बढ़ेगा, उन्हीं में सुखशान्ति की अजस्र धारा बहेगी। माता, भगिनी, धर्मपत्नी और पुत्री के रूप में नारी सुखशान्ति की आधारशिला बन सकती है, बशर्ते कि उसके प्रति सम्मानपूर्ण एवं श्रद्धासिक्त व्यवहार रखा जाए, यदि नारी को दबाया - सताया न जाए तथा उसे विकास का पूर्व अवसर दिया जाए तो वह ज्ञान में, साधना में, तप-जप में, त्याग - वैराग्य में शील और दान में, प्रतिभा, बुद्धि और शक्ति में तथा जीवन के किसी भी क्षेत्र में पिछड़ी नहीं रह सकती। साथ ही वह दिव्य भावनावाले व्यक्तियों के निर्माण एवं संस्कार प्रदान में For Private & Personal Use Only १४३ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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