Book Title: Jain Sanskruti ka Hridaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ r जैन धर्म और दर्शन श्रमण आदि जैसे नाम तो उस सम्प्रदाय के लिए व्यवहृत होते थे पर जब दीर्घ तपस्वी महावीर उस सम्प्रदाय के मुखिया बने तब सम्भवतः वह सम्प्रदाय निर्मन्थ नाम से विशेष प्रसिद्ध हुआ । यद्यपि निवर्तक-धर्मानुयायी पन्थों में ऊँची आध्यात्मिक भूमिका पर पहुँचे हुए व्यक्ति के वास्ते 'जिन' शब्द साधारण रूप से प्रयुक्त होता था । फिर भी भगवान् महावीर के समय में और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर का अनुयायी साधु या गृहस्थ वर्ग 'जैन' ( जिनानुयायी ) नाम से व्यवहृत नहीं होता था । आज जैन शब्द से महावीरपोषित सम्प्रदाय के 'त्यागी' 'गृहस्थ' सभी अनुयायियों का जो बोध होता है इसके लिए पहिले 'निग्गंथ' और 'समरगोवासग' आदि जैसे शब्द व्यवहृत होते थे । जैन और बौद्ध सम्प्रदाय--- इस निर्ग्रन्थ या जैन सम्प्रदाय में ऊपर सूचित निवृत्ति-धर्म के सब लक्षण बहुधा थे ही पर इसमें ऋषभ आदि पूर्वकालीन त्यागी महापुरुषों के द्वारा तथा अन्त में ज्ञातपुत्र महावीर के द्वारा विचार और आचारगत ऐसी छोटी-बड़ी अनेक विशेषताएँ आई थीं व स्थिर हो गई थीं कि जिनसे ज्ञातपुत्र- महावीर पोषित यह सम्प्रदाय दूसरे निवृत्तिगामी सम्प्रदायों से खास जुदा रूप धारण किये हुए था । यहाँ तक कि यह जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से भी खास फर्क रखता था । महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन ही थे बल्कि वे बहुधा एक ही प्रदेश में विचरने वाले तथा समान और समकक्ष अनुयायियों को एक ही भाषा में उपदेश करते थे । दोनों के मुख्य उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं था फिर भी महावीर पोषित और बुद्धसंचालित सम्प्रदायों में शुरू से ही खास अन्तर रहा जो ज्ञातव्य है । बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध को ही आदर्श रूप से पूजता है तथा बुद्ध के ही उपदेशों का आदर करता है जब कि जैन सम्प्रदाय महावीर आदि को इष्ट देव मानकर उन्हीं के वचनों को मान्य रखता है । बौद्ध चित्तशुद्धि के लिए ध्यान और मानसिक संयम पर जितना जोर देते हैं उतना जोर बाह्य तप और देहदमन पर नहीं । जैन ध्यान और मानसिक संयम के अलावा देहदमन पर भी अधिक जोर देते रहे । बुद्ध का जीवन जितना लोकों में हिलने-मिलनेवाला तथा उनके उपदेश जितने अधिक सोधे-सादे लोकसेवागामी हैं वैसा महावीर का जीवन तथा उपदेश नहीं हैं । बौद्ध अनगार की बाह्यचर्या उतनी नियन्त्रित नहीं रही जितनी जैन नगारों की। इसके सिवाय और भी अनेक विशेषताएँ हैं जिनके कारण बौद्ध सम्प्रदाय भारत के समुद्र और पर्वतों की सीमा लांघकर उस पुराने I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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