Book Title: Jain Sanskruti ka Hridaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 10
________________ जन-संस्कृति का हृदय १४१ समय में भी अनेक भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, सभ्य-असभ्य जातियों में दूर-दूर तक फैला और करोड़ों अभारतियों ने भी बौद्ध श्राचार-विचार को अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी भाषा में उतारा व अपनाया जब कि जैन सम्प्रदाय के विषय में ऐसा नहीं हुआ। यद्यपि जैन संप्रदाय ने भारत के बाहर स्थान नहीं जमाया फिर भी वह भारत के दूरवर्ती सब भागों में धीरे-धीरे न केवल फैल ही गया बल्कि उसने अपनी कुछ खास विशेषताओं की छाप प्रायः भारत के सभी भागों पर थोड़ी बहुत जरूर डाली। जैसे-जैसे जैन संप्रदाय पूर्व से उत्तर और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर फैलता गया वैसे-वैसे उस प्रवर्तक-धर्म वाले तथा निवृत्ति पंथी अन्य संप्रदायों के साथ थोड़े-बहुत संघर्ष में भी आना पड़ा। इस संघर्ष में कभी तो जैन आचार-विचारों का असर दूसरे संप्रदायों पर पड़ा और कभी दसरे संप्रदायों के आचार-विचारों का असर जैन संप्रदाय पर भी पड़ा। यह क्रिया किसी एक ही समय में या एक ही प्रदेश में किसी एक ही व्यक्ति के द्वारा संपन्न नहीं हुई। बल्कि दृश्य-अदृश्यी रूप में हजारों वर्ष तक चलती रही और आज भी चालू है। पर अन्त में जैन संप्रदाय और दूसरे भारतीय-अभारतीय सभी धर्म-संप्रदायों का स्थायी, सहिष्णुतापूर्ण समन्वय सिद्ध हो गया है जैसे कि एक कुटुम्ब के भाइयों में होकर रहता है। इस पीढ़ियों के समन्वय के कारण साधारण लोग यह जान ही नहीं सकते कि उसके धार्मिक आचार-विचार की कौन-सी बात मौलिक है और कौन-सी दूसरों के संसर्ग का परिणाम है । जैन आचार-विचार का जो असर दूसरों पर पड़ा है उसका दिग्दर्शन कराने के पहिले दूसरे संप्रदायों के आचार-विचार का जैन-मार्ग पर जो असर पड़ा है उसे संक्षेप में बतलाना ठीक होगा जिससे कि जैन संस्कृति का हार्द सरलता से समझा जा सके। अन्य संप्रदायों का जैन-संस्कृति पर प्रभाव इन्द्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव-देवियों की स्तुति, उपासना के स्थान में जैनों का आदर्श है निष्कलंक मनुष्य की उपासना । पर जैन श्राचार-विचार में बहिष्कृत देव देवियाँ, पुनः गौण रूप से ही सही, स्तुति-प्रार्थना द्वारा घुस ही गई, जिसका कि जैन संस्कृति के उद्देश्य के साथ कोई भी मेल नहीं है । जैन-परंपरा ने उपासना में प्रतीक रूप से मनुष्य मूर्ति को स्थान तो दिया, जो कि उसके उद्देश्य के साथ संगत है, पर साथ ही उसके आसपास शृंगार व अाडम्बर का इतना संभार आ गया जो कि निवृत्ति के लक्ष्य के साथ बिलकुल असंगत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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