Book Title: Jain Sanskruti ka Hridaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 8
________________ जैन - संस्कृति का हृदय १३६ कट्टर निवर्तक धर्मी थे । श्रतएव हम देखते हैं कि पहिले से आज तक जैन और बौद्ध सम्प्रदाय में अनेक वेदानुयायी विद्वान् ब्राह्मण दीक्षित हुए फिर भी उन्होंने जैन और बौद्ध वाङ्मय में वेद के प्रामाण्य स्थापन का न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मणग्रन्थविहित यज्ञयागादि कर्मकाण्ड को मान्य रखा । fare-धर्म के मन्तव्य और आचार शताब्दियों ही नहीं बल्कि सहस्राब्दि पहले से लेकर जो धीरे-धीरे निवर्तक धर्म के श्रङ्ग-प्रत्यङ्ग रूप से अनेक मन्तव्यों और चारों का महावीर बुद्ध तक के समय में विकास हो चुका था वे संक्षेप में ये हैं: – १ – श्रात्मशुद्धि ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है, न कि ऐहिक या पारलौकिक किसी भी पद का महत्त्व । २ -- इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक आध्यात्मिक मोह, अविद्या और तज्जन्य तृष्णा का मूलोच्छेद करना । ३ – इसके लिए आध्यत्मिक ज्ञान और उसके द्वारा सारे जीवन व्यवहार को पूर्ण निस्तृष्ण बनाना । इसके वास्ते शारीरिक, मानसिक, वाचिक, विविध तपस्याओं का तथा नाना प्रकार के ध्यान, योग-मार्ग का अनु सरण और तीन चार या पाँच महाव्रतों का याज्जीवन अनुष्ठान । ४ - किसी भी आध्यात्मिक अनुभव वाले मनुष्य के द्वारा किसी भी भाषा में कहे गये प्राध्यात्मिक वर्णन वाले वचनों को ही प्रमाण रूप से मानना, न कि ईश्वरीय या पौरुपेय रूप से स्वीकृत किसी खास भाषा में रचित ग्रन्थों को । ५ - योग्यता और गुरुपद की कसौटी एक मात्र जीवन की आध्यात्मिक शुद्धि, न कि जन्मसिद्ध वर्णविशेष । इस दृष्टि से स्त्री और शूद्र तक का धर्माधिकार उतना ही है, जितना एक ब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुष का । ६- मद्य-मांस आदि का धार्मिक और सामाजिक जीवन में निषेध । ये तथा इनके जैसे लक्षण जो प्रवर्तक धर्म के चारों और विचारों से जुदा पड़ते थे वे देश में जड़ जमा चुके थे और दिनब-दिन विशेष बल पकड़ते जाते थे । निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय - कमोवेश उक्त लक्षणों को धारण करनेवाली अनेक संस्थाओं और सम्प्र दायों में एक ऐसा पुराना निवर्तक धर्मी सम्प्रदाय था जो महावीर के पहिले बहुत शताब्दियों से अपने खास ढङ्ग से विकास करता जा रहा था। उसी सम्प्रदाय में पहिले नाभिनन्दन ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीराजपुत्र पार्श्वनाथ हो चुके थे, या वे उस सम्प्रदाय में मान्य पुरुष बन चुके थे । उस सम्प्रदाय के समय-समय पर अनेक नाम प्रसिद्ध रहे । यति, भिक्षु, मुनि, अनगार, Jain Education International For Private & Personal Use Only A www.jainelibrary.orgPage Navigation
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