Book Title: Jain Sanskruti ka Hridaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ जैन-संस्कृति का हृदय संस्कृति का स्रोत____संस्कृति का स्रोत नदी के ऐसे प्रवाह के समान है जो अपने प्रभवस्थान से अन्त तक अनेक दूसरे छोटे-मोटे जल स्रोतों से मिश्रित, परिवर्धित और परिवर्तित होकर अनेक दूसरे मिश्रणों से भी युक्त होता रहता है और उद्गम स्थान में पाए जानेवाले रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद आदि में कुछ-न-कुछ परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है । जैन कहलाने वाली संस्कृति भी उस संस्कृति-सामान्य के नियम का अपवाद नहीं है । जिस संस्कृति को आज हम जैन-संस्कृति के नाम से पहचानते हैं उसके सर्वप्रथम, आविर्भावक कौन थे और उनसे वह पहिले-पहल किस स्वरूप में उद्गत हुई इसका पूरा-पूरा सही वर्णन करना इतिहास की सीमा के बाहर है । फिर भी उस पुरातन प्रवाह का जो और जैसा स्रोत हमारे सामने है तथा वह जिन आधारों के पट पर बहता चला आया है, उस स्रोत तथा उन साधनों के ऊपर विचार करते हुए हम जैन संस्कृति का हृदय थोड़ा-बहुत पहिचान पाते हैं। जैन-संस्कृति के दो रूप जैन-संस्कृति के भी, दूसरी संस्कृतियों की तरह, दो रूप हैं। एक बाह्य और दूसरा श्रान्तर । बाह्य रूप वह है जिसे उस संस्कृति के अलावा दूसरे लोग भी श्रांख, कान आदि ब्राह्य इन्द्रियों से जान सकते हैं । पर संस्कृति का प्रान्तर स्वरूप ऐसा नहीं होता । क्योंकि किसी भी संस्कृति के प्रान्तर स्वरूप का साक्षात् आकलन तो सिर्फ उसी को होता है जो उसे अपने जीवन में तन्मय कर ले । दूसरे लोग उसे जानना चाहें तो साक्षात् दर्शन कर नहीं सकते। पर उस आन्तर संस्कृतिमय जीवन बितानेवाले पुरुष या पुरुषों के जीवन-व्यवहारों से तथा आसपास के वातावरण पर पड़नेवाले उनके असरों से वे किसी भी प्रान्तर संस्कृति का अन्दाजा लगा सकते हैं। यहां मुझे मुख्यतया जैन-संस्कृति के उस आन्तर रूप का या हृदय का ही परिचय देना है, जो बहुधा अभ्यासजनित कल्पना तथा अमुमान पर ही निर्भर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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