Book Title: Jain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Author(s): Pushpa Gupta
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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बदला लेने के प्रसंग में भी किया है।"
" कवि गुणभद्र द्वारा उत्तरपुराण में दिया गया कालीय नाग का वर्णन भी बहुत औचित्यपूर्ण तथा पाठक के हृदय को भी दहला देने
वाला है।
पुराणों की अपेक्षा महाकाव्य में पशुओं की भयंकरता का वर्णन कम है। चन्द्रप्रभचरित में 'गजकेलि' नामक हाथी का वर्णन कवि वीरनन्दि द्वारा किया तो गया है, लेकिन यह हृदय पर अमिट छाप छोड़ने वाला नहीं कहा जा सकता । ३
धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभरि ने लम्बे समासों, कठोर, संयुक्त व महाप्राण अक्षरों का प्रयोग कर एक शेर की भयानकता का वर्णन अधिक कुशलता से किया है । *
ऋतुओं की प्रचण्डता का वर्णन पुराणों में कहीं भी प्राप्त नहीं होता । वादिराज सूरि ने ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता का काव्यात्मक और प्रवाहमय वर्णन किया है । वर्णन पढ़ने मात्र से ही सबके द्वारा अनुभव किए जाने वाले, ग्रीष्म ऋतु के दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं का अहसास हो जाता है।
अभयदेव सूरि ने प्रसंगानुकूल भाषा व समासों का प्रयोग कर ग्रीष्म ऋतु के वर्णन को साहित्यिक दृष्टि से भी अधिक प्रभावशाली
बना दिया है।
भरत चक्रवर्ती की सेना को पीड़ित करने के लिए किरातों द्वारा की गई भीषण शर-वर्षा का वर्णन कवि उदयप्रभसूरि ने बहुत ही स्वाभाविक और सजीव रूप से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार वर्षा की भयंकरता का वर्णन भावदेव सूरिकृत पार्श्वनाथचरित में भी प्राप्त होता है। यहां कवि की कल्पना अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर है। 5
कवि रविषेण ने हृदय को कंपा देने वाला, वन की भयंकरता का चित्रण अपने पद्मपुराण में किया है। इसी प्रकार एक-दूसरे स्थल पर भी दुर्गम वन में रहने वाले, अनेकों भयंकर पशुओं की भयंकरता का निरूपण भी कवि द्वारा काव्यात्मक रूप से दिया गया है। शब्दों द्वारा ही कवि अर्थ की प्रतीति कराने में सफल हुआ है।"
कवि धनञ्जय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में 'अतिशयोक्ति अलंकार' प्रयोग कर एक तरफ राम-लक्ष्मण और खर-दूषण में होने वाले और दूसरी ओर अर्जुन, भीम और कौरवों के मध्य होने वाले युद्ध की भयंकरता का बहुत ही सुन्दर वर्णन, एक नवीन व प्रसंगानुकूल उपमा द्वारा किया है। '
युद्ध समाप्त हो जाने पर, सेनाओं द्वारा किए गए भारी विनाश का वर्णन भी उसी काव्य में दिया गया है। कवि की कल्पना और उचित विशेषणों के प्रयोग से वर्णन के सौन्दर्य में वृद्धि हो गई है। "
१. पद्मपुराण, ६ / २४५-४७
२. उत्तरपुराण, ७० / ४६७-६९
३. चन्द्रप्रभचरित, ११ / ८२-८३
४. धर्माभ्युदय, ११ / ४१६-१८
५. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ५ / ६७-६८
६. गिरिदवानलदग्ध वनोद्भवं भ्रमति भस्मसितं विततीकृतम्।
जगति बन्दिजनैरिव वायुभियंश दवोष्ण ऋतोरवनीपतेः ।।
खररुचे रुचिभिः परितापितैः प्रकुपितैरिव मण्डलमादधे ।
अनिलतो वितर्तदिवरेणुभिः कलितपाकपलाशदलोपमम् । जयन्तविजय, १८/१३-१४
७. रसन्तो विरसं मेधा भुक्तं वार्धे जलैः समम् ।
उद्वमन्तो व्यलोक्यन्त वाडवाग्नि तच्छिलातू ।
धारामुशलपातेन खण्डयन्त इव क्षितिम् ।
राक्षसा इव तेऽभूवन् घना भीषणमूर्तयः ॥ धर्माभ्युदय, ४ / ८३-८४
८. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, २ / १५६-५८
६. पद्मपुराण, ७/२५८-६१
१०. वही, ३३ / २३ - २६
११. द्विसंधान महाकाव्य, ६/१६-१७
१२. पतितसकलपना तत्र कीर्णारिमेदा वनततिरिव रुग्णा सामजैभू मिरासीत् ।
निहत निरवशेषा स्वांगशेष । वतस्थे कथमपि रिपुलक्ष्मीरेकमूला लतेव ॥ द्विसंधान, १६ / ६५
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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