Book Title: Jain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Author(s): Pushpa Gupta
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 24
________________ रविषेणाचार्य ने बहुत ही सुन्दर ढंग से विषय-भोगों के स्वभाव का चित्रण करते हुए कहा है कि वे बाह्य रूप में चाहे कितने ही मधुर और मीठे क्यों न प्रतीत होवें, परन्तु अन्त में भयंकर परिणाम वाले ही होते हैं।' आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने बहुत ही काव्यात्मक ढंग से विषय-भोगों की आकर्षण-शक्ति के बारे में बतलाया है कि किस प्रकार वे मनुष्य को अपनी तरफ आकर्षित कर उसे अनुचित मार्ग पर ले जाते हैं।' कवि ने पुनः मौलिक व प्रसंगानुकूल 'मालोपमा' का प्रयोग कर सांसारिक विषय-भोगों में आसक्त मनुष्य की कटु आलोचना पुनः कवि द्वारा व्यावहारिक, सजीव व यथार्थ उपमा देकर मनुष्यों की विषय-भोगों के पीछे भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने इन सांसारिक भोगों की तुलना मृगमरीचिका से करके यह प्रमाणित किया है कि केवल एक मूर्ख ही इनसे आकर्षित हो सकता है, बुद्धिमान नहीं । कवि अमरचन्द्रसूरि ने स्वाभाविक और सुन्दर 'मालोपमा' द्वारा प्रारम्भ में सुन्दर लगने वाले, लेकिन बाद में मनुष्य को नष्ट करने वाले विषय-भोगों का चित्रण किया है। ____ कभी शान्त न होने वाली मनुष्य की तृष्णा, अभयदेवसूरि के अनुसार, केवल वैराग्य का आश्रय लेकर ही शान्त की जा सकती है, अन्यथा नहीं। __ इन महाकाव्यों में लक्ष्मी की कटु आलोचना की गई है। वह तो एक वेश्या के समान अविश्वसनीय एवं मनुष्य को प्रताड़ना देने वाली है। - धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि ने बहुतों के द्वारा भोग कर छोड़ी गई लक्ष्मी के स्वभाव का अनुप्रास-मिश्रित उपमा द्वारा बहुत सुन्दर, सजीव व काव्यात्मक वर्णन किया है। अमरचन्द्रसूरि ने अपने पद्मानन्द महाकाव्य में लक्ष्मी की चञ्चलता व अस्थिरता का एवं किसी के द्वारा भी उसे वश में न किए जा सकने का वर्णन बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है।" शान्त रस के प्रसंग में जैन कवियों द्वारा स्त्रियों की भी कटु आलोचना की गई है। पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने एक सुन्दर 'रूपक' द्वारा स्त्रियों की भर्त्सना की है।" उत्तरपुराण में भी गुणभद्राचार्य ने स्त्रियों के मध्य में स्थित जम्बूकुमार की मानसिक अवस्था का वर्णन सुन्दर और प्रभावशाली १. असिधारामधुस्वादसमं विषयजं सुखम् । दग्धे चन्दनवदिव्यं चक्रिणां सविषान्नवत् ।। पद्मपुराण, १०५/१८० २. आदिपुराण, ५/१२८-२६ ३. वही, ११/१७४-२०३ ४. प्रापितोऽप्यसकृदु:खं भोगस्तानेव याचते । धत्तेऽवताडितोऽप्यति मात्रास्या एव बालकः ॥ आदिपुराण, ४६ २०३ ५. अहेरिवापातमनोरमेषु भोगेषु नः विश्वसिमः कथंचित् । मृगः सतृष्णो मृगतृष्णिकासु प्रतार्यते तोयधिया न धीमान् ॥ धर्मशर्माभ्युदय, ४/५४ ६. कैवतंको मांसकणझषानिव व्याधः सुगीताधिगममगानिव । सूनाधिपो घासलवैरवी निव क्रूरो मृदूक्तिप्रकरैर्नरानिव ।। मूर्ख: कुपथ्य रिव रोगयोगिनो मूढः कुबोधैरिव मुग्धधीयुताम् । आपातरम्य: परिणामदारुणः क्लिश्नाति मोहो विषय : शारीरिणः ॥ पद्मानन्द, ३/४०-४१ ७. विविधविभवभोगभूरितृष्णा ज्वरलहरीव भवावधिप्ररूढा । जनयति हृदि तापमित्य मन्दं प्रशमय निस्पृहतासुधारसैस्ताम् ।। जयन्तविजय, १२/५५ ८. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, २/६८ ६. अहमस्या: पति: सेयं मर्मवेत्यभिमानिनः । युवा भोगार्थिनः के वा वेश्ययेव न वञ्चिताः ।। पत्नपानीव धात्रीय भुक्त्वा त्यक्ता महात्मभिः । विगृह्य गृह्यते लुब्धैः कुक्कुरैरिव ठक्कुरैः ।। १०. पद्मानन्द, ६/२७-३३ ११. पद्मपुराण, १५/१७९-८० जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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