Book Title: Jain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Author(s): Pushpa Gupta
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 27
________________ कर इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का उपदेश दिया है। यहां कवि पर कठोपनिषद् का प्रभाव परिलक्षित होता है। पद्मपुराण में तप और संयम को निर्वाण-प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। तो प्रद्युम्नचरित में तप को संसार-रूपी भवसागर को पार करने का साधन बतलाया गया है। __ अहिंसा पर इन काव्यों में प्रभूत बल दिया गया है। यहां तक कि हिंसा के बारे में सोचने-मात्र से ही मनुष्य के सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं। ___ 'रत्नत्रय' जैन दर्शन की अपनी अनुपम देन है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र व सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है। जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी रत्नत्रय' को अनन्त सुख और मोक्ष को देने वाला माना गया है। लेकिन ये तीनों एक-दूसरे के पूरक ही हैं। पहले के बिना दूसरा अधूरा है तो दूसरे के बिना तीसरा। इन महाकाव्यों में अनेक स्थलों पर भौतिक शरीर के प्रति घृणित भाव परिलक्षित होते हैं जो जैन दर्शन की 'अशुचि-भावना' के अन्तर्गत आते हैं । पद्मपुराण में लक्ष्मण की मृत्यु हो जाने पर, विभीषण राम को शरीर की अपवित्रता के बारे में बतलाकर ढाढ़स बंधाते हैं। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने शरीर के प्रति अपने जुगुप्सित भावों को काव्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार धर्माभ्युदय महाकाव्य में भी इस नश्वर शरीर को मलमूत्र-आदि घृणित पदार्थों का संग्रह बतलाया गया है। इन काव्यों में चार कषायों की आलोचना भी की गई है। चन्द्रप्रभचरित में कवि वीरनन्दि ने इन कषायों के स्वरूप तथा इनको दूर करने के उपाय का वर्णन एक सुन्दर रूपक द्वारा किया है। पद्मानन्द महाकाव्य में भी स्वामी वृषभध्वज ने इन कषायों का तथा इनसे प्राप्त होने वाली गतियों का वर्णन किया है। प्रत्येक पंक्ति में 'चतुः' का प्रयोग दर्शनीय है। " इसी काव्य में कवि अमरचन्द्रसूरि ने पुनः सांसारिक विषय-भोगों और वास्तविक सुखों का परस्पर विरोध रोचक शैली द्वारा प्रतिपादित किया है ।१२ इन महाकाव्यों में शान्त रस के प्रसंग में, अपने आस-पास के वातावरण से अनभिज्ञ, तप में लीन महात्माओं का भी सुन्दर व सजीव वर्णन प्राप्य है। आदिपुराण में तपोलीन राजा महाबल केवल 'परमात्मा' को ही देखता है, सुनता है व उसी के नाम का उच्चारण करता है। १. परस्त्रीरूपसस्येषु बिभ्राणा लोभमुत्तमम् । भमी हृषीकतुरगा धृतमोहमहाजवाः।। शरीररथमुन्मुक्ताः पातयन्ति कुवमसु । चित्तप्रग्रहमत्यन्तं योग्यं कुरुत तदृढम् ॥ पद्मपुराण, ३६/१२३-२४ २. कठोपनिषद्, १/३/३-४ ३. पद्मपुराण, ३६/१२६ ४. प्रद्युम्नचरित, १३/२४ ५. तनोतु जन्तु: शत शस्तपांसि ददातु दानानि निरन्तराणि । करोति चेत् प्राणिवधेऽभिलाषं व्यर्थानि सर्वाण्यपि तानि तस्य ।। नेमिनिर्वाण, १३/१८ ६. चन्द्रप्रभचरित, ७/५१-५२ ७. पद्मपुराण, ११७/१३ ८. निरन्तरथवोत्कोथनवद्वारशरीरकम् । कृमिपुञ्जचिताभस्मविष्ठानिष्ठं विनश्वरम् ।। आदिपुराण, ४५/१६० ६. धर्माभ्युदय, ६/७५-७६ १०. कषायसारेन्धनबद्धपद्धतिर्भवाग्निरुत्तुंगतरः समुत्थितः ।। न शान्तिमायाति भृशं परिज्वलन्न यद्ययं ज्ञानजलनिषिच्यते ।। चन्द्रप्रभचरित, ११/१९ ११. चतुष्कषायैः स्खलिताः पृथक् पृथक चतुर्विधैः सज्वलनादिभेदतः । चतुर्गातस्थप्रभवा भवेऽगिनः प्रयान्ति नानन्तचतुष्टयं पदम् ॥ पद्मानन्द, १२/४० १२. तृष्णातिरस्करिण्यैव पिहितोऽस्ति सुखोदयः । यावत्युत्सायंते सेयं तावानयमवेक्ष्यते ॥ पमानन्द, १६/२६६ १३. चक्षुषी परमात्मानमद्रष्टामस्य योगतः। अश्रोष्टा परमं मन्वं श्रोत्रे जिह्वा तमापठत् ।। आदिपुराण, ५/२४६ ३८ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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