Book Title: Jain Sahitya me Kosh Parampara Author(s): Vidyasagar Rai Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४२३ -.-.-.asti सोको स्वे किक किरीि आवृद्धि में तीन तोकिमीम-पाच लाक...अधिक भी मिलते हैं । इस कोश में १७०० शब्द हैं। आपने इन श्लोकों की रचना 'अनुष्टुप् छन्द में की है। इस कोश में एक शब्द से शब्दान्तर करने की विशेष पद्धति का प्रतिपादन किया गया है। जैसे---मनुष्य वाचक शब्द से आगे 'पति' शब्द जोड़ देने से 'नृपवाची' नाम बनता है। 'वृक्ष' वाची के आगे 'चर' शब्द जोड़ देने से वानरवाची नाम बनता है । इस प्रकार आपका प्राकृत कोश आजकल के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । इस कोश के अध्ययन से सरलता के साथ संस्कृत का शब्द भण्डार बढ़ता है। - नि भनंजय के काव्यग्रन्थ निम्न हैंजाता है। २. राघवपांडवीय, इस कोश की । , स्तोत्र, ४. अनेकार्थ निघण्टु । - इन सभी ग्रन्थों पर विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न टीकायें लिखी हैं । कई भाष्य भी उपलब्ध होते हैं । (३) आचार्य हेमचन्द्र : अभिधानचितामणिनाममाला-आचार्य हेमचन्द्र ने 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' का प्रणयन किया है । आपका समय १३वीं शती के लगभग है। आपका पूरा नाम हेमचन्द्रसूरि है। आचार्य हेमचन्द्र के जीवनवृत्त का ठीक-ठीक पता नहीं चलता । इनकी रचनाओं में इन्होंने अपना या अपने वंश का उल्लेख नहीं किया है। इस कोश का आरम्भ शब्दानुशासन के समस्त अंगों की रचना प्रतिष्ठित हो जाने के बाद किया है। आपने स्वयं कोश की उपयोगिता बताते हुए लिखा है-"बुधजन वक्तृत्व और कवित्व को विद्वत्ता का फल बताते हैं । परन्तु ये दोनों शब्द-ज्ञान के बिना सिद्ध नहीं हो सकते।" इस कोश की रचना 'अमरकोश' के समान ही की गयी है। यह कोश रूढ़, यौगिक और मिश्र एकार्थक शब्दों का संग्रह है। इसमें कांडों का विभाजन निम्न प्रकार हुआ हैक्र० सं० काण्ड श्लोक विषय देवाधिदेव काण्ड ६८ २४ तीर्थकर तथा उनके अतिशयों के नाम । देवकाण्ड २५० देवता तथा तत्सम्बन्धी वस्तुओं के नाम । मर्त्य काण्ड ও मनुष्यों एवं उनके व्यवहार में आने वाले पदार्थों के नाम। तिर्यक् काण्ड ४२३ पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, वनस्पति, खनिज आदि के नाम । नारक काण्ड नरकवासियों के नाम। ६. साधारण काण्ड १७८ ध्वनि, सुगन्ध और सामान्य पदार्थों के नाम । इस ग्रन्थ में कुल १५४१ श्लोक हैं । अमरकोश से यह कोश शब्द संख्या में डेढ़ गुना बड़ा है। पर्यायवाची शब्दों के साथ-साथ भाषा-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री भी इसमें प्राप्त होती है। इसमें नवीन एवं प्राचीन शब्दों का समन्वय है । इसकी एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि इन्होंने कवि द्वारा प्रयुक्त और सामान्य शब्दों को ग्रहण नहीं किया है। X १. प्रणिवत्यार्हतः सिद्धसांगशब्दानुशासनः । रूढ-यौगिक मिश्राणां नाम्नां मालां तनोम्यहम् ।। वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानाइते तन्न द्वयमप्युपपद्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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