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जैन साहित्य में कोश-परम्परा 1] विद्यासागरराव व्याख्याता महात्मा गांधी रा० उ०मा० विद्यालय, जोधपुर
"वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानाहते तन्न, द्वयमप्युपपद्यते ॥"
विद्वानों की विद्वत्ता दो रूपों में फलीभूत होती है । विद्वान् या तो अपनी वाणी द्वारा लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं, अथवा अपने संचित ज्ञान को साहित्य सृजन के माध्यम से प्रकट करते हैं । लेकिन वे दोनों कार्य शब्दों के सम्यक् ज्ञान के बिना सम्पन्न नहीं हो सकते । अतः इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए विद्वज्जनों को कोश की आवश्यकता अनुभव होती है ।
'कोश' शब्द का अर्थ - 'कोश' शब्द का अर्थ भण्डार, आकर, खजाना, संग्रह आदि होता है । शब्दकोश से अभिप्राय शब्दों के ऐसे संग्रह से है, जिसमें शब्द उनके अर्थ, व्युत्पत्ति, प्रयोग आदि सभी कुछ निर्दिष्ट किया होता है। लगभग सभी भाषाओं के अपने-अपने कोण होते हैं। इन कोशों में वर्णादि क्रम से शब्दों की परिचिति, प्रकृति; वाक्य विन्यास, आदि का व्यवस्थापन किया जाता है। कोश भी व्याकरण की ही भाँति भाषाशास्त्र का महत्त्वपूर्ण भाग है | व्याकरण मात्र यौगिक शब्दों को सिद्ध करता है, जबकि कोश रूढ़ तथा योगरूढ़ शब्दों का भी विवेचन करता है ।
कोश : उत्पत्ति एवं परम्परा -कोश भाषा का ही अभिन्न रूप है । इसलिये कोशों की उत्पत्ति भी तभी से माननी पड़ेगी, जब से भाषा की उत्पत्ति हुई । जिस प्रकार भाषा का प्राचीन काल में मौखिक रूप था, उसी प्रकार कोशों का भी मौखिक रूप ही रहा होगा ।
इस देश में कोशों की परम्परा लगभग २६०० वर्ष पूर्व से प्राप्त होती है। भारतीय परम्परा प्राचीन काल में मौखिक रही है । इसलिए इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती, लेकिन कोश पहले ‘निघण्टुओं' के रूप में प्रचलित थे । यही परम्परा आगे चलकर जैन वाङ्मय में 'नाम-माला' के नाम से प्रचलित रही । निघण्टु कोश वैदिक ग्रन्थों के विषय से मर्यादित हैं। लेकिन इसके विपरीत लौकिक कोश अन्य सब लौकिक विषयों के नाम, अव्यय, लिंग, वचन आदि का ज्ञान कराते हुए शब्दार्थ ज्ञान कराने वाला व्यापक भण्डार है ।
निघण्टु के बाद रिक्तकार 'वास्क' ने विशिष्ट शब्दों का संग्रह किया है। तदनन्तर पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' में यौगिक शब्दों का संग्रह करके कोश भण्डार में अभिवृद्धि की है।
पाणिनि के समय तक सभी कोश ग्रन्थ 'गद्य' में लिखे गये। बाद में लौकिक कोशों को पद्यबद्ध किया गया । मुख्य रूप से कोश दो पद्धतियों में प्राप्त होते हैं— एकार्थक कोश और अनेकार्थक कोश । जैन-परम्परानुसार सम्पूर्ण जैन वाङ्मय 'द्वादशांगवाणी में निबद्ध है। इन्हीं में 'कोश' साहित्य भी पांच महाविद्याओं में से अक्षर विद्या में सन्निहित है। प्रारम्भ में एकादश अंग चतुर्दश पूर्वी के भाष्य पूर्णियाँ वृत्तियाँ तथा विभिन्न टीका को साहित्य का काम करती रहीं । कालान्तर में ये ही शब्द कोशों में निबद्ध हो गयीं ।
शब्द कोशों की परम्परा वदिक काल से ही प्रारम्भ हो जाती है । यास्क के निरुक्त से पहले भी कई निरुक्तकार हो चुके थे । वैयाकरणों ने ही संस्कृत को प्राकृत भाषा में बदलने के लिए वचन व्यवस्था का आदेश दिया। उन्होंने
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....योगी की कमानीमाती सणा अभिनन्दन राय पंजाखड..
ही प्राकृत बोलियों को प्राकृत अपभ्रंश नाम दिये । साधारण लोक जीवन में प्राकृतें प्रतिष्ठित थीं। इसी कारण कोश की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। पांचवीं छठी शती पूर्व तक प्राकृत में शब्द कोशों की रचना नहीं हुई थी। प्राकृतों के रूढ़ होने पर छठी शती में अपभ्रश प्रकाश में आ गयी थी। जैन परम्परा के अनुसार जैन आगम ग्रन्थ भगवान महावीर के ६६३ वर्ष में सर्वप्रथम वल्लभी में देवधिगणी 'क्षमाश्रमण' ने लिपिबद्ध किये। लगभग पांचवी शताब्दी में जैनागमों के लि पिबद्ध होने तक कोई शब्द कोश नहीं रचा गया, लेकिन साहित्य रचना की दृष्टि से संस्कृत परम्परा प्राचीन रही है। प्राच्य विद्या विशारद 'वल्हर' ने सर्वप्रथम प्राकृत शब्दकोषों की विवरिणिका बनायी थी।'
जैन वाङ्मय में कोशकार एवं कोश जैन विद्वानों ने एवं मुनियों ने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में विविध कोशों की रचना की, जिनका संक्षिप्त उल्लेख एव सामान्य परिचय निम्न पंक्तियों में दिया जा रहा है
(१) धनपाल जैन : पाइयलच्छीनाममाला-यह कोश उपलब्ध प्राकृत कोशों में प्रथम है। इसके रचनाकार पं० धनपाल जैन थे। ये गृहस्थ थे। पं० धनपाल जन्म से ब्राह्मण थे। आप धाराधीश मुजराज की राज्यसभा के सामान्य विद्वद्रत्न थे। मुंजराज आपको सरस्वती कहा करते थे। अपने भाई शोभन मुनि के उपदेश से जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया, तदनन्तर जैनत्व अंगीकार किया । आपने अपनी छोटी बहिन 'सुन्दरी' में लिए वि० सं० १०२६ में इस कोश की रचना की।
पाइयलच्छी नाममाला' कोश में २७६ गाथायें हैं । इसमें २६८ शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। देशी शब्दों का इस ग्रन्थ में अच्छा अभिधान हुआ है। स्वयं धनपाल ने देशी शब्दों का उल्लेख किया। आज भी हमारे बोलचाल के शब्द इन कोशों में ज्यों के त्यों मिलते हैं । जैसे-कुपल (कोंपल), मुक्खा (मूर्ख), खाइया (खाई) आदि । इसी प्रकार संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के शब्द भी द्रष्टव्य हैं। हेमचन्द्रविरचित अभिधानचिन्तामणि में भी इसकी प्रामाणिकता एवं महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। शाङ्गधर पद्धति में भी धनपाल के कोश विषयक ज्ञान का उल्लेख मिलता है।
पं० धनपाल द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थ निम्न हैं१. तिलक मंजरी,
२. थावक विधि, ३. ऋषभपंचाशिका
४. महावीरस्तुति, ५. सत्यपुंडरीक मंडन
६. शोभनस्तुति टीका (२) धनंजय : धनंजयनाममाला-कवि धनंजय ने 'धनंजयनाममाला' की रचना की। इनके काल का निर्धारण भी अभी नहीं हो पाया है । कतिपय विद्वान् इनका समय नौवीं; कोई दशवीं शताब्दी मनाते हैं। आप दिगम्बर जैन थे। 'द्विसंधान महाकाव्य' के अन्तिम पद्य की टीका के अनुसार धनंजय के पिता का नाम वसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ सूचित किया गया है । ५
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१. Zachariae in Die-Indischen Worterbucher in Buhler's Encyclopaedia 1897. २. कइओ अंध अणकि वा कुसलत्ति पयाणमतिना वण्णा ।
नामाम्मि जस्स कम सो तेणेसा निरइया देशी ।। ३. “पोओ वहणं सबरा य किराया"
'पाइयलच्छीय' २७४ ४. आचार्य प्रभाचन्द्र और वादिराज (११वीं शती) ने धनंजय के द्विसंधान महाकाव्य का उल्लेख किया है। सूक्ति
मुक्तावली में राजशेखर कृत धनंजय की प्रशस्ति सूक्ति का उल्लेख है। ५. महावीर जैन सभा, खंभात, शक संवत् १८१८ (मूल)
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जैन साहित्य में कोश-परम्परा
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सोको स्वे किक किरीि आवृद्धि में तीन तोकिमीम-पाच लाक...अधिक भी मिलते हैं । इस कोश में १७०० शब्द हैं। आपने इन श्लोकों की रचना 'अनुष्टुप् छन्द में की है। इस कोश में एक शब्द से शब्दान्तर करने की विशेष पद्धति का प्रतिपादन किया गया है।
जैसे---मनुष्य वाचक शब्द से आगे 'पति' शब्द जोड़ देने से 'नृपवाची' नाम बनता है। 'वृक्ष' वाची के आगे 'चर' शब्द जोड़ देने से वानरवाची नाम बनता है । इस प्रकार आपका प्राकृत कोश आजकल के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । इस कोश के अध्ययन से सरलता के साथ संस्कृत का शब्द भण्डार बढ़ता है।
- नि भनंजय के काव्यग्रन्थ निम्न हैंजाता है।
२. राघवपांडवीय, इस कोश की । , स्तोत्र,
४. अनेकार्थ निघण्टु । - इन सभी ग्रन्थों पर विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न टीकायें लिखी हैं । कई भाष्य भी उपलब्ध होते हैं ।
(३) आचार्य हेमचन्द्र : अभिधानचितामणिनाममाला-आचार्य हेमचन्द्र ने 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' का प्रणयन किया है । आपका समय १३वीं शती के लगभग है। आपका पूरा नाम हेमचन्द्रसूरि है। आचार्य हेमचन्द्र के जीवनवृत्त का ठीक-ठीक पता नहीं चलता । इनकी रचनाओं में इन्होंने अपना या अपने वंश का उल्लेख नहीं किया है।
इस कोश का आरम्भ शब्दानुशासन के समस्त अंगों की रचना प्रतिष्ठित हो जाने के बाद किया है। आपने स्वयं कोश की उपयोगिता बताते हुए लिखा है-"बुधजन वक्तृत्व और कवित्व को विद्वत्ता का फल बताते हैं । परन्तु ये दोनों शब्द-ज्ञान के बिना सिद्ध नहीं हो सकते।"
इस कोश की रचना 'अमरकोश' के समान ही की गयी है। यह कोश रूढ़, यौगिक और मिश्र एकार्थक शब्दों का संग्रह है। इसमें कांडों का विभाजन निम्न प्रकार हुआ हैक्र० सं० काण्ड
श्लोक
विषय देवाधिदेव काण्ड
६८ २४ तीर्थकर तथा उनके अतिशयों के नाम । देवकाण्ड
२५० देवता तथा तत्सम्बन्धी वस्तुओं के नाम । मर्त्य काण्ड
ও मनुष्यों एवं उनके व्यवहार में आने वाले
पदार्थों के नाम। तिर्यक् काण्ड
४२३ पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, वनस्पति, खनिज
आदि के नाम । नारक काण्ड
नरकवासियों के नाम। ६. साधारण काण्ड
१७८ ध्वनि, सुगन्ध और सामान्य पदार्थों के नाम । इस ग्रन्थ में कुल १५४१ श्लोक हैं । अमरकोश से यह कोश शब्द संख्या में डेढ़ गुना बड़ा है। पर्यायवाची शब्दों के साथ-साथ भाषा-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री भी इसमें प्राप्त होती है। इसमें नवीन एवं प्राचीन शब्दों का समन्वय है । इसकी एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि इन्होंने कवि द्वारा प्रयुक्त और सामान्य शब्दों को ग्रहण नहीं किया है।
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१. प्रणिवत्यार्हतः सिद्धसांगशब्दानुशासनः ।
रूढ-यौगिक मिश्राणां नाम्नां मालां तनोम्यहम् ।। वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानाइते तन्न द्वयमप्युपपद्यते ।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
___ भाषा की दृष्टि से यह कृति अमूल्य है, इसमें प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषाओं के शब्दों का पूर्ण प्रभाव स्पष्ट है।
हेमचन्द्रसूरि की अन्य कृतियाँ निम्न हैं१. अभिधानचिंतामणि,
२. अनेकार्थ संग्रह, ३. निघंटु संग्रह,
४. देशीनाममाला, ५. (रयणावली)।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि : अभिधानचितामणिवृत्ति-यह रचना भी आचार्य हेमचन्द्रसूरि की ही का को 'तत्त्वाभिधायिनी' भी कहा गया है, इसमें शब्दों के संग्राहक श्लोक निम्न प्रकार है- की जान कांड
श्लोक प्रथम काण्ड
चतुर्थ काण्ड द्वितीय काण्ड
पंचम काण्ड तृतीय काण्ड
षष्ठ काण्ड
काण्ड
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इस प्रकार इसमें कुल २०४ श्लोक हैं । इन श्लोकों में अभिधानचिंतामणिनाममाला मिला देने से कुल श्लोक संख्या १५४५ हो जाती है । इस ग्रन्थ में ५६ ग्रन्थकारों एवं ३१ ग्रन्थों का उल्लेख है।
हेमचन्द्रस रि : अनेकार्थसंग्रह-इस कोश का प्रणयन हेमचन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् १३वीं शती में किया। इस कोश में प्रत्येक शब्द के अनेक अर्थ प्रतिपादित किये गये हैं। इस ग्रन्थ के काण्ड एवं श्लोक संस्था निम्नवत् है
श्लोक
४८
काण्ड
श्लोक
काण्ड १. एकस्वर काण्ड
५. पंचस्वर काण्ड २. द्विस्वर काण्ड
६. षट्स्वर काण्ड ३. त्रिस्वर काण्ड
७. अव्यय काण्ड ४. चतुःस्वर काण्ड
३४३ ___इस प्रकार इसमें १८२६+६० पद्य हैं। इस कोश में भी देश्य शब्द हैं । यह ग्रन्थ अभिधानचिंतामणि के बाद ही लिखा गया है। इसके आदि श्लोक से यही ज्ञात होता है।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि : निघण्टु शेष-आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने निघण्टु शेष नामक वनस्पति कोश का भी प्रणयन किया है । 'निघण्टु' शब्द का अर्थ 'वैदिक शब्द समूह' होता है । लेकिन बनस्पति कोशों को भी निघण्टु कहने की परम्परा है।'
डॉ० व्यूल्हर के अनुसार यह एक श्रेष्ठ वनस्पति कोश है । इस कोश की रचना करते समय आचार्य के सामने 'धन्वन्तरि निघण्टु कोश' रहा होगा। इस ग्रन्थ की रचना के विषय में आचार्य ने लिखा है
विहितैकार्थ-नानार्थ-देश्यशब्द समुच्चयः ।
निघण्टुशेषं वक्ष्येहं, नत्वाहत् पदपंकजम् ॥ इसमें छ: काण्ड निम्नवत् हैं
१. एकार्थानेकार्था देश्या निघण्टु च चत्वारः । विहिताश्च नामकोश भुवि कवितानट्युपाध्यायः ।।
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काण्ड
१. वृक्षकाण्ड
३. लताकाण्ड
५. तृणकाण्ड
१. स्वरादि
३. चवर्गादि
५. तवर्गादि
७. यकारादि
श्लोक
१८१
४४
१७
काण्ड
२. गुल्मकाण्ड
४. शाककाण्ड
६. धान्यकाण्ड
इस प्रकार इस कोश की कुल श्लोक संख्या ३६६ है । यह कोश आयुर्वेदिक ज्ञान के लिए अत्यन्त उपयोगी है ।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि : देशी शब्द संग्रह - आचार्य सूरि ने देशज शब्दों के लिए इस देश्य शब्दों के कोश की रचना की है। इसका अपर अभिधान 'देशी नाममाला' भी है। इसी को 'रयणावली' नाम से भी अभिहित किया जाता है।
इस कोश की ७०३ गाथाओं का विभाजन निम्नवत् हुआ है-
२. वर्गादि
४. टवर्गादि
६. पवर्गादि
८. सकारादि
जैन साहित्य में कोश-परम्परा
इस कोश पर भी विभिन्न विद्वानों ने टीकायें एवं भाष्य लिखे हैं ।
इस कोश की रचना करते समय विद्वान् कोशकार के समक्ष अनेक कोश ग्रन्थ विद्यमान थे । इन्होंने कोश ग्रन्थ की प्रयोजन इस प्रकार सिद्ध किया है
जे लक्खणे ण सिद्धा न पसिद्धा सक्काया हिहागे । णय गउडलक्खणासत्ति संभवा ते इह णिबद्धा ||
तथा कोश का अन्तिम श्लोक निम्न है
४२५
जिनदेव मुनि शिलोंच्छ कोश- अभिधान चिंतामणि के दूसरे परिशिष्ट के रूप में यह कोश रचा गया है । इस कोश के प्रणयन कर्त्ता जिनदेव मुनि हैं। जिनरत्न कोश के अनुसार इनका समय सं० १४३३ के आसपास निश्चित होता है । "
श्लोक
१०५
३४
१५
यह कोश परिशिष्ट के रूप में १४० श्लोकों में निबद्ध है। कई स्थानों पर यह १४६ श्लोकों में भी प्राप्त होता है। ज्ञानविमलसूरि के दिन बल्लभ ने इस पर टीका लिखी है ।
सहजकीति नामकोश इस कोश के रचयिता सहजफीति थे। आप रत्नसार मुनि के शिष्य थे। इनके निश्चित काल का ज्ञान नहीं हो सका है। कोश के आधार पर आपका समय सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी निश्चित होता है । इस कोश का आदि श्लोक इस प्रकार है
स्मृत्वा सर्वज्ञामात्मानम् सिद्धशब्दार्णवान् जनान् । सालिंगनिर्णयं नामकोशं सिद्धं स्मृति नमे ॥
कृतशब्दार्णवः सांगाः श्रीसहजादिकीर्तिभिः । सामान्यकांडो यं षष्ठः स्मृतिमार्गमनीयत् ॥
इस कोश पर भी भाष्य एवं कतिपय टीकायें उपलब्ध हैं। मुनि जी की मुख्य अन्य रचनायें निम्न प्रकार हैं
१. जिन रत्नकोस, पृ० ३८३.
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कर्मयोगी श्री केसरीमलगी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
१. शतदन्तकमलालंकृतलोप्रपुरीयपार्श्वनाथस्तुति।। ५. एका दिदशपर्यन्त शब्द साधनिका २. महावीरस्तुति
६. सारस्वत वृति ३. कल्पमंजरी टीका
७. शब्दार्णव आदि। ४. अनेक शास्त्र सार समुच्चय
पद्मसुन्दर : सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव-इस कोश के प्रणेता पद्मसुन्दर हैं। आप पद्ममेरु जी के शिष्य थे। इनकी यह रचना वि० सं १६१६ की है। इस प्रमाण के आधार पर आपका काल सत्रहवीं शती निश्चित होता है। सम्राट अकबर के साथ आपका घनिष्ठ सम्बन्ध था। अकबर ने आपको आपकी बुद्धि एवं शास्त्रार्थ की क्षमता पर सम्मानित भी किया था। आगरा में आपके लिए अकबर द्वारा 'धर्मस्थानक' भी बनवाया गया था। पं० पद्मसुन्दर ज्योतिष, वैद्यक, साहित्य और तर्कशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे।
सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव की हस्तलिखित प्रति वि० सं० १६१६ की लिखी हुई प्राप्त हुई है। इस कोश में २६६८ पद्य हैं । इसकी ८८ पत्रों की हस्तलिखित प्रति सुजानगढ़ में श्री पनेचन्दजी सिंघी के संग्रह से प्राप्त हुई है।
यह कोश शब्दों तथा उनके अर्थों की विशद विवेचना करता है। आधुनिक समय के लिए यह एक अत्यन्त उपयोगी है।
उपाध्याय भानुचन्द्रगणि : नामसंग्रह-उपाध्याय भानुचन्द्रगणि ने इस कोश की रचना की है। इसी कोश के अन्य 'अभिधान नाममाला' तथा 'विविक्त नाम संग्रह है। इसी कोश को कई विद्वान् भानुचन्द्र नाममाला' भी कहते हैं।'
उपाध्याय भानुचन्द्रगणि सूरचन्द्र के शिष्य थे। वि० सं० १६४८ में इनको लाहौर में 'उपाध्याय' की पदवी प्राप्त हुई। इन्होंने सम्राट अकबर के सामने स्व रचित 'सूर्य सहस्रनाम' का प्रत्येक रविवार को पाठ किया था।
इस कोश में अभिधान चिंतामणि के अनुसार ही छ: काण्ड हैं। काण्डों के शीर्षक भी लगभग उसी क्रम से दिये गये हैं । नाम संग्रह का अपनी दृष्टि से अलग ही महत्व है।
भानुचन्द्रगणि विरचित अन्य ग्रन्थ निम्न हैं१. रत्नपाल कथानक
२. कादम्बरी वृति ३. सूर्य सहस्रनाम
४. वसन्तराज शाकुन वृत्ति ५. विवेक विलास वृत्ति
६. सारस्वत व्याकरण वृत्ति हर्षकीतिसूरि : शारदीय नाममाला-इस कोश के प्रणेता चन्द्रकीर्ति सूरि के शिष्य हर्षकीतिसूरि थे। इनका काल सत्रहवीं शती है। इनके जीवन वृत्त का अन्य विवरण अप्राप्य है ।
शारदीयनाममाला में कुल ३०० श्लोक हैं। शोध कर्म की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण कोश है । इस कोश का नाम 'शारदीय अभिधानमाला' भी है। इस कोश के अतिरिक्त भी इन्होंने 'योग चिन्तामणि', 'वैद्यकसारोद्धार' आदि ८ ग्रन्थ तथा टीकायें लिखी हैं ।
मुनि साधुकीति : शेष नाममाला-खरतरगच्छीय मुनि साधुकीति ने इस कोश ग्रन्थ की रचना की है। यह भी अन्य नाममालाओं की तरह ही एक लब्ध प्रतिष्ठ कोश है । इनका काल सत्रहवीं शती था।
आपने अकबर के दरबार में शास्त्रार्थ में खूब ख्याति प्राप्त की थी। बादशाह ने प्रसन्न होकर इनको 'वादिसिंह' की पदवी से सम्मानित किया था। ये सहस्रों शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् थे।' १. जैन ग्रन्थावली पृ० ३११ २. खरतरगण पाथोराशि वृद्धौ..
शास्त्रसहस्रसार विदुषां"..... उक्ति रत्नाकर प्रशस्ति।
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जैन साहित्य में कोश-परम्परा
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साधुसुन्दर गणि : शब्द रत्नाकर-खरतरगच्छीय साधुसुन्दरगणि ने वि० सं० १६८० में इस कोश की रचना की । साधुसुन्दरमणि साधुकीर्ति के शिष्य थे। इनके जीवन-वृत्त के बारे में अधिक जानकारी अप्राप्य है।
यह पद्यात्मक कृति है । इसमें छ: काण्ड हैं१. अर्हत्
२. देव ३. मानव
४. तिर्यक ५. नारक
६. सामान्य काण्ड। इनकी अन्य रचनायें-'शक्ति रत्नाकार' और 'धातु रत्नाकर' हैं ।
मुनिधरसेन : विश्वलोचन कोश-मुनि धरसेन ने विश्वलोचन कोश की रचना की है। इसी का अपर नाम मुक्तावली कोश भी है। आप सेन वंश में उत्पन्न होने वाले कवि और वादी मुनिसेन के शिष्य थे। ये समस्त शास्त्रों पारगामी तथा काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इनके काल का निश्चित ज्ञान नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार इनका समय चौदहवीं शती था।
इस अनेकार्थ कोश में २४५३ श्लोक है। इस कोश के रचनाक्रम में स्वर और क वर्ग आदि के क्रम से शब्द के आदि का निर्णय किया गया है। इनमें शब्दों को ३३ वर्ग, क्षान्त वर्ग और अव्यय वर्ग, इस प्रकार ३५ वर्गों में विभक्त किया गया है।
जिनभद्रसरि : अपवर्ग नाममाला-इस कोश के प्रणेता जिनभद्रसूरि हैं । ये अपने आपको 'जिनवल्लभसूरि' और 'जिनदत्तसूरि' का सेवक भी कहते थे।' इस आधार पर इनका रचना काल १२वीं शती निश्चित होता है। लेकिन इस समय के बारे में विद्वान् एक मत नहीं हैं।
इस ग्रन्थ का नाम 'जिन रत्न कोश' में 'पंचवर्गपरिहारनाममाला' दिया गया है। लेकिन इसका आदि और अन्त देखते हुए 'अपवर्ग नाममाला' नाम ही उचित प्रतीत होता है।
इस कोश में पाँच वर्ग यानी क से म तक के वर्गों को छोड़कर य, र, ल, व, श, प, स, ह-इन आठ वर्गों में से कम ज्यादा वर्णों से बने शब्दों को बताया गया है।
इस प्रकार यह कोश अपने आप में अनूठा है।
अमरचन्द्रसूरि : एकाक्षर नाममालिका-इस कोश का प्रणयन १२वीं शती में अमरचन्द्रसूरि द्वारा किया गया। अमरचन्द्रसूरि ने गुजरात के राजा विसलदेव की राजसभा को अलंकृत किया था। ये शीघ्र कवित्व के कारण समस्यापूर्ति में बड़े निपुण थे। आपका समकालीन कवि समाज में अत्यन्त सम्मान था।
इस कोश का प्रथम श्लोक अमर कवीन्द्र नाम दर्शाता है। इन्होंने सभी कोशों का अवलोकन करके इस कोश की रचना की है, इसमें २१ श्लोक हैं।
इनके अन्य ग्रन्थ निम्न हैं१. बाल भारत
२. काव्यकल्पलता ३. पद्मानन्द महाकाव्य
४. स्यादि शब्द समुच्चय । महाक्षपणक: एकाक्षर कोश-एकाक्षर कोश 'महाक्षपणक' प्रणीत है। प्रणेता के सम्बन्ध में "एकाक्षरार्धसंलापः स्मृतः क्षपणकादिभिः" के अतिरिक्त कुछ जानकारी प्राप्त नहीं होती।
१. श्रीजिनवल्लभ जिनदत्तसूरिदेवी जिनप्रिय विनेयः ।
अपवर्ग नाममालामकरोज्जिनभद्रसूरिरिमान् ॥
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कर्मयोगी श्री केसरोमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खणड
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कवि ने प्रारम्भ में ही आगमों, अभिधानों, धातुओं और शब्द शासन से यह एकाक्षर नाम अभिधान किया है। इसमें क से क्ष तक के व्यंजनों के अर्थ प्रतिपादन के बाद स्वरों के अर्थ को स्पष्ट किया है। इसमें कुल ४१ पद्य हैं।
सुधाकलशमुनि : एकाक्षर नाममाला-इस कोश के प्रणेता सुधाकलश मुनि है। अन्तिम पथ में दिये गये इनके परिचय से पता चलता है कि ये ‘मलधारिगच्छमती गुरु राजशेखरसूरि' के शिष्य थे। इनके जीवन वृत्त के बारे में भी ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हुई है।
एकाक्षर नाममाला में ५० पद्य हैं। उपाध्याय सुन्दरगणि ने सं० १६४६ में अर्थ रत्नावली में इस कोश का नाम-निर्देश किया है। इसमें भी वर्णानुक्रम शब्द रचना का निर्देश किया है।
इस प्रकार अठारहवीं शती से पूर्व जैन कोशों की एक निरन्तर परम्परा रही। कुछ कोश अत्यन्त विशालकाय पाये गये तो कुछ लघु काय ।
उपर्युक्त मुख्य कोशों के अतिरिक्त भी कुछ छोटे कोशों की रचना भी अठारहवीं शती से पूर्व हो चुकी थी। जिनमें कतिपय निम्न हैं१. निघण्टु समय : धनंजय
२. अनेकार्थनाममाला : धनंजय ३. अवधान चिन्तामणि अवचूरि : अज्ञात
४. अनेकार्थ संग्रह : हेमचन्द्रसूरि ५. शब्दचन्द्रिका
६. शब्दभेद नाममाला : महेश्वर ७. अव्ययकाक्षर नाममाला : सुधाकलशगणि ८. शब्द-संदोह संग्रह : ताडपत्रीय (अज्ञात) ६. शब्दरत्नप्रदीप : कल्याणमल्ल
१०. गतार्थकोश : असंग ११. पंचकी संग्रह नाममाला : मुनि सुन्दरसूरि १२. एकाक्षरी नानार्थकाण्ड : धरसेनाचार्य १३. एकाक्षर कोश : महाक्षपणक इत्यादि । ___ इन सभी कोश ग्रन्थों पर विभिन्न मनीषी विद्वानों ने टीकायें लिखी हैं, जिनमें निम्न मुख्य हैं
धनंजय नाममाला भाष्य : अमरकीर्ति, अनेकार्थ नाममाला टीका : अज्ञात, अभिधान चिन्तामणि वृत्ति, अभिधान चिन्तामणि टीका, व्युत्पत्ति-रत्नाकर, अभिधान चिन्तामणि अवचूरि, अभिधान चिन्तामणि बीजक, अभिधान चिन्तामणि नाममाला प्रतीकावली, अनेकार्थ संग्रह टीका, निघण्टु शेष-टीका इत्यादि । इस प्रकार ये सब कोश अठारहवीं शती तक रचे गये ।
आधुनिक कोशों का आरम्भ उन्नीसवीं शती से माना जा सकता है। इन कोशों की रचना शैली का आधार पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विरचित शब्दकोश रहे हैं। इन सदियों में भी जैन विद्वानों ने अमूल्य कोशों की रचना करके कोश साहित्य एवं परम्परा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आधुनिक मुख्य कोशकारों एवं कोशों का अति संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
विजयराजेन्द्र सरि : अभिधानराजेन्द्र कोश-इस कोश के प्रणेता विजयचन्द्रसूरि थे । इनका जन्म सं० १८८३ (सन् १८२६) पोष शुक्ल गुरुवार को भरतपुर में हुआ था। आपके बचपन का नाम रत्नराज था। आप संवत् १९०३ में स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर 'रत्न विजय' बने । संवत १९२३ में आप मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुए और 'विजयराजेन्द्रसूरि' नाम से आचार्य की पदवी प्राप्त की। आप अच्छे प्रवक्ता और शास्त्रार्थकर्ता थे । सन् १९०६ में राजगढ़ में आपका देहावसान हो गया ।
आचार्य विजयचन्द्रसूरि ने स्वयं इस कोश ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है-'इस कोश में अकारादि क्रम से प्राकृत शब्द, तत्पश्चात् उनका संस्कृत में अनुवाद फिर व्युत्पत्ति, लिंग निर्देश तथा जैन आगमों के अनुसार उनका अर्थ प्रस्तुत किया गया है।' इस कोश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन आगम का कोई भी विषय न रहा जो इस महाकोश में न आया हो । अतः मात्र इस कोश को देखने से ही जैन आगमों का बोध हो जाता है।
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जैन साहित्य में कोश-परम्परा
४२६
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अभिधानराजेन्द्रकोश की श्लोक संख्या साढ़े चार लाख है। अकारादि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत का संकलन है।'
इस कोश की विशेषता यह भी है कि कोशकार ने प्राकृत, जैन-आगम, वृत्ति, भाष्य, चूणि आदि में उल्लिखित सिद्धान्त, इतिहास, शिल्प, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि का भी इसमें संग्रह किया है। यह कोश रतलाम से सात भागों में प्रकाशित हुआ है। इस कोश में प्राचीन टीका, व्याख्या तथा ग्रन्थान्तरों का भी उल्लेख मिलता है। तीर्थ और तीर्थंकरों के बारे में भी बताया गया है।'
संक्षेप में कोश निम्न प्रकार है
ऋ० सं०
भाग
वर्ण
पृष्ठ
प्रकाशनकाल
८९४
प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग पंचम भाग पष्ठ भाग सप्त भाग
अ वर्ण आ-ऊ ए-क्ष ज-न प-भ म-व
११७८ १३६४ २७७८ १६३६ १४६६ १२४४
१६१० १६१३ १६१४ १९१७ १६२१ १९२३
स-ह
१६२५
इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश पाठकों के लिए बृहत् ज्ञान प्रस्तुत करता है।
मुनि रत्नचन्द्र : अर्धमागधी कोश-इस कोश के प्रणेता मुनि रत्नचन्द्र हैं। ये लीम्बड़ी सम्प्रदाय के स्थानकवासी साधु थे। मुनि जी का जन्म संवत् १९३६ वैशाख शुक्ल १२ गुरुवार को हुआ। ये कच्छ में भरोसा नामक ग्राम के निवासी थे। आपका विवाह तेरह वर्ष की अवस्था में हुआ। सं० १९५३ में पत्नी की मत्यु हो गयी। तत्पश्चात् इन्हें संसार से विरक्ति हो गयी और दीक्षा ले ली। इन्होंने जीवन के उत्तर काल में इस महाकोश की रचना की।
अर्ध मागधी कोश मूलत: गुजराती में लिखा गया। इस कोश की रचना में मुनि उत्तमचन्द जी, आत्माराम जी, मुनि माधव जी, तथा मुनि देवेन्द्र जी ने भी सहयोग दिया। इसका हिन्दी तथा अंग्रेजी में रूपान्तर प्रीतम लाल कच्छी तथा उनके सहयोगी विद्वानों ने किया । यह कोश निम्न रूप में प्रकाशित हुआ है
भाग
वर्ण
पृष्ठ
प्रकाशन वर्ष
५१२
प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग
अ आ-ण त-ब
१००२ १००० १०१५
१६२३ १६२७ १६२६ १६३२
भ-ह
(परिशिष्ट सहित)
१. अभिधान राजेन्द्र कोश, भूमिका पृष्ठ १३ २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भूमिका पृ० १३
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४३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खंड
इस प्रकार लगभग ३६०० पृष्ठों में यह कोश समाप्त होता है । पाँच भाषाओं में अनूदित होने के कारण इसे हम 'पंचभाषाकोष' भी कह सकते हैं। इस कोश में अभिधान राजेन्द्रकोश की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। अर्ध मागधी के अतिरिक्त प्राकृत बोलियों के शब्दों को भी इसमें स्थान प्राप्त है । यह कोश चित्रमय भी है; जैसे आवलिका बंध विमान, आसन, ऊर्वलोक, उपशमश्रेणी, मनकावली, कृष्णराजी कालचक्र, क्षपक श्रेणी, धनरज्जु आदि पारस्परिक चित्र प्रमुख हैं। इस कोश का पूरा नाम An Illustrated Ardh Magadhi Dictionary है । इसका प्रकाशन एस० एस० जैन कान्फ्रेस इन्दौर से हुआ है।
मुनि रत्नचन्द्रजी का यह कोश छात्रों और शोधकों के लिए उद्धरण ग्रन्थ है।
पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द्र सेठ पाइय-समय सेठजी का जन्म वि० सं० १९४५ में राधनपुर (गुजरात) में हुआ। इनकी शिक्षा यशोविजय जैन पाठशाला, वाराणसी में हुई। इन्होंने यहाँ संस्कृत एवं प्राकृत का अध्ययन भी किया । आप पालि का अध्ययन करने के लिए श्रीलंका भी गये। बाद में संस्कृत गुजराती एवं प्राकृत के अध्यापक के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए। यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से आपने अनेक संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। लगभग ५२ वर्ष की अवस्था में संवत् १६७७ में आप भौतिक शरीर से मुक्त हो गये ।
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विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि सेठ जी ने इस कोश ग्रन्थ की रचना 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की कमियों को दूर करने के लिए की इन्होंने स्वयं लिखा है-इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तथा जैनेतर साहित्य के यथेष्ट शब्दों के संकलित आवश्यक अवतरणों से युक्त शुद्ध एवं प्रामाणिक कोश का नितान्त अभाव रहा। इस अभाव की पूर्ति के लिए मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का दृढ़ संकल्प किया और तदनुसार ही प्रयत्न भी शुरू कर दिया। जिसका फल प्रस्तुत कोश के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात् आज पाठकों के सामने है।
५० पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना लिखी। शब्द के साथ किसी ग्रन्थ का प्रमाण भी बताया है। अतः यह कोश अत्यन्त उपयोगी
कोशकार ने इस कोश को बनाने में अपार परिश्रम तथा धन व्यय किया । इन्होंने आधुनिक ढंग से लगभग इस ग्रन्थ के निर्माण में लगभग ३०० ग्रन्थों से सहायता ली गयी । प्रत्येक दिया गया है। एक शब्द के सभी सम्भावित अर्थों को भी कोशकार ने बन पड़ा है।
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सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार पुरातन जैन वाक्य सूची - मुख्तार जी प्राचीन जैन विद्या के विख्यात अनुसन्धाता थे। आपने अपने जीवन के पचास वर्ष खोज एवं अनुसन्धान में ही व्यतीत किये हैं। आपके ग्रन्थों में गागर में सागर भरा है ।
इसमें ६४ मूल ग्रन्थों के पद्य वाक्यों की वर्णादिक्रम
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इसमें कुल २५३२५२ प्राकृत पद्यों की अनुक्रमणका
पुरातन जैन वाक्य सूची वास्तव में एक कोश ग्रन्थ है। से सूची दी है। इसी में टीकाओं से प्राकृत पद्य भी दिये गये हैं है । इसके सहायक ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं । यह ग्रन्थ शोधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। इसका प्रकाशन वीर सेवा मन्दिर से सन् १६५० में हुआ । इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में सम्बद्ध ग्रन्थों और आचार्यों के समय तथा उनके सहयोग पर भी कहा गया है।
सम्पादक युगल किशोर मुख्तार, पं० परमानन्द शास्त्री जैन प्रशस्ति संग्रह इस प्रशस्ति संग्रह के दो भाग हैं । प्रथम भाग का सम्पादन श्री जुगलकिशोर मुख्तार जी ने किया है। इस कोश में संस्कृत - प्राकृत भाषाओं के १७१ ग्रन्थों की प्रशस्तियों का संकलन किया गया है। ये सभी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें संघ,
१. पाइयसद्दमहण्णव, भूमिका, पृ० १४ (द्वितीय संस्करण)
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जैन साहित्य में कोश-परम्परा
४३१
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गण, गच्छ, वंश, गुरु-परम्परा, स्थान, समय आदि का संकेत मिलता है। इसमें ११३ पृष्ठों में पं० परमानन्द जी लिखित प्रस्तावना भी विशेष महत्त्वपूर्ण है।
जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के दूसरे कोश के सम्पादक पं० परमानन्द शास्त्री हैं। शास्त्रीजी इतिहास एवं साहित्य के गणमान्य विद्वान् हैं। आपके द्वारा सौ से भी उपर शोध प्रबन्धों को स्वयं लिखकर प्रकाशित कराया गया ।
इस द्वितीय भाग में अप्रभ्रंश ग्रन्थों की १२२ प्रशस्तियाँ प्रल्लिखित हैं। इससे तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाज पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इन प्रशस्तियों को पांडुलिपियों में से उद्धृत किया गया है और यथासम्भव अप्रकाशित ग्रन्थों को ही सम्मिलित किया गया है। लगभग १५० पृष्ठों की भूमिका भी विशेष महत्त्व रखती है । इसका प्रकाशन १९६३ में दिल्ली से हुआ।
सम्पादक-श्री मोहनलाल बांठिया एवं श्रीचन्द चोरडिया : लेश्या कोश-इस ग्रन्थ का प्रकाशन संपादन श्री चोरडिया जी ने किया है । यह ग्रन्थ १९६६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। ये दोनों जैन वाङ्मय के प्रकांड विद्वान् थे। इन्होंने जैन वाङ्मय को सर्वविदित दशमलव प्रणाली के आधार पर १०० वर्गों में विभक्त किया है। इसके सम्पादन में मुख्य रूप से तीन बातों का ध्यान रखा गया है। पाठों का मिलान, विषय के उपविषयों का बर्गीकरण और हिन्दी अनुवाद, इसमें टीकाकारों का भी आधार लिया गया है। इसमें नियुक्ति, चूणि, वृत्ति, भाष्य आदि का भी यथास्थान उपयोग किया गया है। इस कोश में दिगम्बर ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है। इस ग्रन्थ के निर्माण में ४३ ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।
__सम्पादक-मोहनलाल बांठिया एवं श्रीचन्द चोरडिया : क्रिया कोश-इस कोश को सन् १९६६ में 'जैन दर्शन समिति' कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। जैन दर्शन में गहरी पैठ रखने के कारण ही बांठिया जी के अथक परिश्रम से यह कोश बन सका । इसका निर्माण भी दशमलव प्रणाली के आधार पर किया गया है। क्रिया के माथ-साथ कर्म को भी इसमें आधार बनाया गया है। इसके संकलन में ४५ ग्रन्थों का उपयोग किया गया है। लेश्या कोश के समान ही इसमें भी तीन बिन्दुओं को आधार माना है। लेकिन इसमें कुछ ग्रन्थों का भी उल्लेख किया गया । इस प्रकार के कोश जैन दर्शन को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
सम्पादक-जे. एल जैनी : जैन जेम डिक्सनरी (Jain Gem Dictionary)-इसका सम्पादन जैन दर्शन एवं जैन आगमों के ख्यातनामा विद्वान् जे० एल० जैनी ने किया। इसका प्रकाशन सन् १९१६ में आगरा से किया गया। जैन धर्म को आंग्ल भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करने में श्री जैनी महोदय का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
यह कोश जैन पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए बहत उपयोगी है। इसमें सभी जैन-पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए वर्णानुक्रम से व्यवस्थित करके अँग्रेजी में अनुवाद किया गया है। इसका एक और प्रत्यक्ष लाभ यह रहा कि आंग्ल भाषी लोग भी जैन दर्शन एवं आगम के बारे में आसानी में समझ सके।
इस कोश को आधार बनाकर परवर्ती विद्वानों ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, बृहज्जैन शब्दार्णव, अल्प परिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश आदि का प्रणयन किया है।
क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-इस कोश के प्रणेता क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी हैं। वर्णी जी का जन्म १९२१ में पानीपत में हुआ। आपके पिता जय-भगवान एक वकील, जाने-माने विचारक और विद्वान् थे। इनको क्षय रोग हो गथा था । अत: एक ही फेफड़ा होते हुए भी आप अभी तक जैन वाङमय की श्रीवृद्धि कर रहे हैं। आपने सन् १९५७ में घर से संन्यास ग्रहण कर लिया तथा १९६३ में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आपने शान्ति पथ प्रदर्शक, नये दर्पण, जैन-सिद्धान्त शिक्षण, कर्मसिद्धान्त आदि अनेक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया।
यह कोश २० वर्षों के सतत अध्ययन के परिणामस्वरूप बना है। इन्होंने तत्त्वज्ञान, आचार शास्त्र, कर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक राजवंश, आगम-धार्मिक, दार्शनिक सम्प्रदाय आदि से सम्बद्ध लगभग ६०००
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड
-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................ शब्दों तथा २१०० विषयों का विषद वर्णन किया है। सम्पूर्ण सामग्री संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की लगभग १०० पांडुलिपियों से उद्धृत है । यथा-स्थान तथा रेखाचित्र एवं सारणियां भी हैं।
यह कोश भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया गया है। मूल उद्धरणों से उद्धृत होने के कारण इस कोश की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है। इस कोश की रचना में अधिकांश दिगम्बर ग्रन्थों का सहारा लिया गया है। इसके चार भाग निम्न प्रकार हैं
क०
भाग
वर्ण
प्रकाशन काल
अ-औ
५०४
६३४
१. प्रथम भाग २. द्वितीय भाग ३. तृतीय भाग ४. चतुर्थ भाग
१९७१ १९७१ १९७२ १६७३
प-व स-ह
६३८
इस प्रकार यह महाकोश वर्णी जी की सतत साधना का प्रमाण एवं शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है।
सम्पादक-बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री : जैन लक्षणावली-इस कोश के सम्पादक श्री बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री हैं। इनका जन्म संवत् १९६२ में सोरई ग्राम (झांसी) में हुआ। आपकी शिक्षा वाराणसी में पूर्ण हुई। सन् १९४० से आप निरन्तर साहित्य-साधना में मग्न हैं। आपने षट्खण्डागम के दस भागों का भी सम्पादन किया। इसके अतिरिक्त जीवराज जैन ग्रन्थमाला से कई पुस्तकों का प्रणयन एवं सम्पादन, प्रकाशन किया कराया।
लक्षणावली भी एक जैन पारिभाषिक शब्दकोश है। इसमें ४०० श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों का संकलन है। जैन दर्शन के सन्दर्भ में एक ऐसे पारिभाषिक शब्दकोष की आवश्यकता थी जो एक ही स्थान पर वर्णानुक्रम से दार्शनिक परिभाषाओं को प्रस्तुत कर सके । इस कमी को जैन लक्षणावली ने पूर्ण किया। इसमें लगभग १०० पृष्ठों की प्रस्तावना इस कोश ग्रन्थ की उपयोगिता को बढ़ाती है।
इसके दो भाग क्रमश:-१९७२ और १९७५ में प्रकाशित हुए हैं। इसकी पृष्ठ संख्या ७५० है। तीसरा भाग मुद्रणाधीन है।
इस प्रकार जैन कोश परम्परा में इस कोश ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
Editor : Mohan Lal Mehta and K. R. Chandra : A Dictionary of Prakrit Proper Names-इस कोश का संयुक्त संकलन एवं सम्पादन डा० मोहनलाल मेहता एवं के० आर० चन्द्र ने किया । १९७२ में अहमदाबाद से इस कोश को दो भागों में प्रकाशित किया गया। इन दोनों विद्वानों के अनेक शोध ग्रन्थ एवं निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं । डा० मेहता ने Jaina Psychology, Jaina Culture, Philosophy आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया।
डा. चन्द्र ने कई ग्रन्थों के हिन्दी एवं अंग्रेजी के अनुवाद किये। जैन साहित्य, विशेषतः आगमों में उल्लिखित व्यक्तिगत नामों के सन्दर्भ में यह कोश एक अच्छी जानकारी प्रस्तुत करता है ।।
Dr. A.N. Upadhyaya : Jaina Bibliography': इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० ए० एन० उपाध्याय कर रहे हैं । इसके लगभग २००० पृष्ठ मुद्रित हो चुके हैं। शेष भाग का कार्य डा० भागचन्द जैन कर रहे हैं। आप नागपुर के निवासी हैं। आपकी जैन वाङ्मय में गहरी पैठ है। इस Bibliography में देश-विदेश में प्रकाशित जैन ग्रन्थों
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________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा 433 . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................................ एवं पत्रिकाओं से ऐसे विषयों अथवा सन्दर्भो को विषयानुसार एकत्रित किया गया है, जिनमें जैन धर्म एवं जैन संस्कृति से सम्बन्धित किसी भी प्रकार की सामग्री प्रकाशित हुई है। इस बृहदाकार ग्रन्थ में देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा लिखित तीन सौ पुस्तकों एवं निबन्धों का उपयोग किया गया है। यह ग्रन्थ निर्विवाद रूप से प्राचीन भारतीय संस्कृति और मुख्य रूप स जैन संस्कृति के ज्ञान के लिए अत्यन्त उपयोगी सन्दर्भ ग्रन्थ है। अन्य कोश-इन कोशों के अतिरिक्त भी निम्न मुख्य कोशों का निर्माण हुआ है श्री वल्लभी छगनलाल कृत-जैन कक्को, एन० आर० कावडिया कृत English Prakrit Dictionary, डा० भागचन्द्र जैन कृत विद्वद्विनोदनी आदि उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से ज्ञात हुआ है कि जैन वाङमय में कोश परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। पहले पहल यह पांडु-लिपियों में एवं अविकसित रूप में हमें उपलब्ध होती है। बाद में परिवतित एवं परिमाजित रूप में प्राप्त हुई है। कई पांडुलिपियों का संकलन एवं सम्पादन करके बृहद् कोश तैयार कर लिये गये हैं। कुछ का कार्य अभी चल रहा है। आशा है, भविष्य में भी यह परम्परा अबाध गति से चलती रहेगी और शोधार्थियों को अत्यधिक लाभ प्रदान करेगी। यह कोश परम्परा जैन धर्म एवं जैन वाङ्मय को अधिक से अधिक प्रकाश में लाकर साधारण जन-मानस में भी व्याप्त हो जायेगी।