Book Title: Jain Sahitya me Kosh Parampara
Author(s): Vidyasagar Rai
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा 1] विद्यासागरराव व्याख्याता महात्मा गांधी रा० उ०मा० विद्यालय, जोधपुर "वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानाहते तन्न, द्वयमप्युपपद्यते ॥" विद्वानों की विद्वत्ता दो रूपों में फलीभूत होती है । विद्वान् या तो अपनी वाणी द्वारा लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं, अथवा अपने संचित ज्ञान को साहित्य सृजन के माध्यम से प्रकट करते हैं । लेकिन वे दोनों कार्य शब्दों के सम्यक् ज्ञान के बिना सम्पन्न नहीं हो सकते । अतः इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए विद्वज्जनों को कोश की आवश्यकता अनुभव होती है । 'कोश' शब्द का अर्थ - 'कोश' शब्द का अर्थ भण्डार, आकर, खजाना, संग्रह आदि होता है । शब्दकोश से अभिप्राय शब्दों के ऐसे संग्रह से है, जिसमें शब्द उनके अर्थ, व्युत्पत्ति, प्रयोग आदि सभी कुछ निर्दिष्ट किया होता है। लगभग सभी भाषाओं के अपने-अपने कोण होते हैं। इन कोशों में वर्णादि क्रम से शब्दों की परिचिति, प्रकृति; वाक्य विन्यास, आदि का व्यवस्थापन किया जाता है। कोश भी व्याकरण की ही भाँति भाषाशास्त्र का महत्त्वपूर्ण भाग है | व्याकरण मात्र यौगिक शब्दों को सिद्ध करता है, जबकि कोश रूढ़ तथा योगरूढ़ शब्दों का भी विवेचन करता है । कोश : उत्पत्ति एवं परम्परा -कोश भाषा का ही अभिन्न रूप है । इसलिये कोशों की उत्पत्ति भी तभी से माननी पड़ेगी, जब से भाषा की उत्पत्ति हुई । जिस प्रकार भाषा का प्राचीन काल में मौखिक रूप था, उसी प्रकार कोशों का भी मौखिक रूप ही रहा होगा । इस देश में कोशों की परम्परा लगभग २६०० वर्ष पूर्व से प्राप्त होती है। भारतीय परम्परा प्राचीन काल में मौखिक रही है । इसलिए इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती, लेकिन कोश पहले ‘निघण्टुओं' के रूप में प्रचलित थे । यही परम्परा आगे चलकर जैन वाङ्मय में 'नाम-माला' के नाम से प्रचलित रही । निघण्टु कोश वैदिक ग्रन्थों के विषय से मर्यादित हैं। लेकिन इसके विपरीत लौकिक कोश अन्य सब लौकिक विषयों के नाम, अव्यय, लिंग, वचन आदि का ज्ञान कराते हुए शब्दार्थ ज्ञान कराने वाला व्यापक भण्डार है । निघण्टु के बाद रिक्तकार 'वास्क' ने विशिष्ट शब्दों का संग्रह किया है। तदनन्तर पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' में यौगिक शब्दों का संग्रह करके कोश भण्डार में अभिवृद्धि की है। पाणिनि के समय तक सभी कोश ग्रन्थ 'गद्य' में लिखे गये। बाद में लौकिक कोशों को पद्यबद्ध किया गया । मुख्य रूप से कोश दो पद्धतियों में प्राप्त होते हैं— एकार्थक कोश और अनेकार्थक कोश । जैन-परम्परानुसार सम्पूर्ण जैन वाङ्मय 'द्वादशांगवाणी में निबद्ध है। इन्हीं में 'कोश' साहित्य भी पांच महाविद्याओं में से अक्षर विद्या में सन्निहित है। प्रारम्भ में एकादश अंग चतुर्दश पूर्वी के भाष्य पूर्णियाँ वृत्तियाँ तथा विभिन्न टीका को साहित्य का काम करती रहीं । कालान्तर में ये ही शब्द कोशों में निबद्ध हो गयीं । Jain Education International शब्द कोशों की परम्परा वदिक काल से ही प्रारम्भ हो जाती है । यास्क के निरुक्त से पहले भी कई निरुक्तकार हो चुके थे । वैयाकरणों ने ही संस्कृत को प्राकृत भाषा में बदलने के लिए वचन व्यवस्था का आदेश दिया। उन्होंने For Private & Personal Use Only -+ O www.jainelibrary.org.

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