Book Title: Jain Sadhu aur Biswi Sadi Author(s): Nirmal Azad Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 3
________________ जैन साधु और बीसवी सदी ७३ श्वेताम्बर परम्परा में इनकी संख्या पर्याप्त है। फिर भी संघ के संचालन, संवर्धन एवं मार्गदर्शन में आचार्य का ही नाम आता है। सामान्यतः पुरुष साधु ही आचार्य बनाये जाते रहे हैं, पर उपाध्याय अमरमुनि ने साध्वीश्री चंदना जी को आचार्यत्व पद प्रदान कर साध्वियों के लिए नई परम्परा का श्री गणेश कर नयी ज्योति विकिरित की है। साधु संघस्थ होता है और आचार्य संघनायक होता है। वह साधुजनों की शिक्षा, दीक्षा, अनुशासन, प्रायश्चित्त, संघरक्षा आदि का वेत्ता और मार्गदर्शी होता है । इसलिये सामान्य साधु की तुलना में उसमें कुछ गुणविशेष होने चाहिये। इन गुणों का कषंण तो उसने स्वयं की साधु अवस्था में किया है, इनका अभ्यास और विकास उसमें ऐसी शक्ति उत्पन्न करना है जो उसे संघनायक बनाती है। महावीर के युग में साधु-संघ के कुछ नियम विकसित किये गये थे। (i) साधू-संघ पर्वत, उद्यान या चैत्यों पर बने स्थानों पर आवास करे। ये स्थान सुदूर होते थे और जनाकीर्ण नहीं रहते थे। इस कारण साधु जन-सम्पर्क में कम-से-कम आ पाते थे। फलतः वे आदर्श साधना पथ पर आरूढ़ रहते थे। (ii) साधु उपासरा, देवकुल, स्थानक, धर्मशाला आदि साधु-आवास बनवाने वाले व्यवस्थापकों या श्रेष्ठिवर्ग के घर अशन-पान नहीं करे । यही नहीं, साधु क्षिति-शयन या काष्ठ-पर पर सोवे । (iii) साधु को राजाओं का आदर या मित्रता नहीं करनी चाहिये । उन्हें उनके यहां या उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों और अधिकारियों के यहां आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये । (iv) साधु को स्नान नहीं करना चाहिये, दंतधावन नहीं करना चाहिये । साधु को उत्तम, मध्यम या जघन्य कोटि कोटि का केशलुंचन करना चाहिये । साधु को यान वाहन का उपयोग नहीं करना चाहिये । पदयात्रा ही उसका आवागमन-साधन है। (v) आवश्यकता पड़ने पर ग्राम में एक दिन तथा नगर में पांच दिन से अधिक आवास नहीं करना चाहिये । (vi) साधु का आहार आगमिक उद्देश्यों की पूर्ति तथा अचित्तता पर आधारित खाद्यों पर निर्भर रहना चाहिये । (vii) साधु की अन्य चर्या नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की होनी चाहिये । इसमें स्वाध्याय, ध्यान आदि का अधिकाधिक महत्त्व रहता है। साधु का आवास महाबीर का युग ग्राम और नगर गण-राज्यों का था। उन दिनों बीसवीं सदी के समान लाखों को आबादी वाले नगर नहीं थे, शहरी संस्कृति की जटिलतायें नहीं थी। यातायात के साधन तथा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले आवास भवन नगण्य थे। उन दिनों मनुष्य प्राकृतिक जीवन का अभ्यस्त था। फलतः उपरोक्त अनेक नियम समयानुकूल थे। आज ग्रामीण संस्कृति गांवों में भी समाप्त प्राय दिखती है, शहरों की तो बात क्या ? इसलिये आवास हेतु प्राकृतिक स्थलों की समस्या स्पष्ट है, जनाकीणता की बात भी जटिल हो गई है। महावीर के पंचयाम में ब्रह्मचर्य के समाहित होने पर भी जनसंख्या में लगातार वृद्धि होते रहना भी अनेक आधुनिक समस्याओं का मूल है। आवास सम्बन्धी स्थिति की जटिलता का अनुभव छठवी-सातवों सदी में हो होने लगा था। इसीलिये आवास और आहार के सम्बन्ध में उपरोक्त नियम (i-iii) महत्त्वपूर्ण हो गये थे। साधुओं के आवास गांवों एवं नगरों के मन्दिर, चैत्य एवं धर्मशालाओं में होने लगे थे और वे सभी प्रकार के लोगों के अधिकाधिक संपर्क में आने लगे थे। इस सम्पर्क से, अन्य धर्मों के समान जनश्रमणों में भी धर्म-प्रचार की भावना ने उत्कट रूप लिया। यह मानसिकता सब, सम्भवतः और उग्र हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10