Book Title: Jain Sadhna me Dhyan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 4
________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आँख बन्द करनी होती है। जैसे ही आँख बन्द होती है व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत् से टूटकर अन्तर्जगत् से जुड़ता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है, अब हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएँ न होकर मनोसृजनाएँ होती हैं जब व्यक्ति इस मनोसृजनाओं (संकल्प-विकल्पों) का द्रष्टा बनता है, उसे एक ओर इनकी पर-निमित्तता (विभावरूपता) का बोध होता है तथा दूसरी ओर अपने साक्षी स्वरूप का बोध होता है। आत्म-अनात्म का विवेक या स्व-पर के भेद का ज्ञान होता है। कर्ता भोक्ता भाव के विकल्प क्षीण होने लगते हैं। एक निर्विकल्प आत्म-दशा की अनुभूति होती है। दूसरे शब्दों में मन की भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है। मनोसृजनाएँ या संकल्प-विकल्प विलीन होने लगते हैं। चेतना की सभी विकलताएँ समाप्त हो जाती हैं। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। सहज समाधि प्रकट होती है। इस प्रकार आकांक्षाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों एवं तनावों से मुक्त होने पर एक अपरिमित निरपेक्ष आनन्द की उपलब्धि होती है, आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप में लीन रहता है । इस प्रकार ध्यान आत्मा को परमात्मा या शुद्धात्मा से जोड़ता है। अतः वह आत्मसाक्षात्कार या परमात्मा के दर्शन की एक कला है। ध्यान मुक्ति का अन्यतम कारण जैन-धर्म में ध्यान मुक्ति का जन्म कारण माना जा सकता है जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास को जिन १४ सोपानों (गुणस्थानों) आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है। का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को अयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है। अयोगी केवली गुणस्थान वह अवस्था है जिसमें वीतराग आत्मा अपने कावयोग, वचनयोग, मनोयोग अर्थात् शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध होने पर वह मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया सम्भव है शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्युपरत क्रिया निवृत्ति के द्वारा। अतः ध्यान मोक्ष का अन्यतम कारण है। जैन-परम्परा में ध्यान में स्थित होने के पूर्व जिन पदों का उच्चारण किया जाता है, वे निम्न हैं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि २३ अर्थात् "मैं शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर, मन को ध्यान में नियोजित कर शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता हूँ।" यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ, आत्मा का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का विसर्जन करना है। क्योंकि विसर्जन या परित्याग आत्मा का नहीं अपनेपन के भाव अर्थात् ममत्वबुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है, तभी ध्यान की सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोगदशा अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का अन्यतम कारण है। Jain Education International सूत्र में कहा गया है “आत्मा तप से परिशुद्ध होती है। २४ सम्यक् ज्ञान से वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होता है। सम्यग्दर्शन से तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है। सम्यगुचारित्र आसव का निरोध करता है। किन्तु तीनों से भी मुक्ति सम्भव नहीं होती, मुक्ति का अन्तिम कारण तो निर्जरा है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाना ही मुक्ति है और कर्मों की तप से ही निर्जरा होती है। अतः ध्यान तप का एक विशिष्ट रूप है, जो आत्मशुद्धि का अन्यतम कारण है। वैसे यह भी कहा जाता है कि आत्मा व्युपरत क्रिया-निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान में आरूढ़ होकर ही मुक्ति को प्राप्त होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि जैन साधना विधि में ध्यान मुक्ति का अन्तिम कारण है। ध्यान एक ऐसी अवस्था है जब आत्मा पूर्ण रूप से 'स्व' में स्थिति होती है और आत्मा का 'स्व' में स्थित होना ही मुक्ति या निर्वाण की अवस्था है। अतः ध्यान ही मुक्ति बन जाता है। योग दर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्ण चरण माना गया है। उसमें भी ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ध्यान जब अपनी पूर्णता पर पहुँचता है तो वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस निर्विकल्प दशा को न केवल जैन दर्शन में, अपितु सम्पूर्ण श्रमणपरम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण- परम्परा में अपितु सभी धर्मों की साधन-विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया हैं। योग चाहे चित्त वृत्तियों के निरोध में निर्विकल्प समाधि हो या ध्यान और समाधि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्ठागार में लगी हुई आ को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनिजीवन के शीलव्रतों में लगी हुई वासना या आकांक्षारूपी अग्नि का प्रशमन करना भी आवश्यक है। यही समाधि है। २५ धवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् अवस्थिति को ही समाधि कहा है। २६ वस्तुतः चित्तवृत्ति का उद्वेलित होना ही असमाधि है और उसकी इस उद्विग्नता का समाप्त हो जाना ही समाधि है । उदाहरण के रूप में जब वायु के संयोग से जल तरंगाबित होता है तो उस तरंगित जल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता है। चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति का समाप्त होना ही समाधि है। ध्यान भी वस्तुतः चित्त की वह निष्प्रकम्प अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षी होता है। वह चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है। अतः ध्यान और समाधि समानार्थक है; फिर भी दोनों में एक सूक्ष्म अन्तर है वह अन्तर इस रूप में है कि ध्यान समाधि का साधन है और समाधि साध्य है। योगदर्शन के अष्टांग योग में समाधि का पूर्व चरण ध्यान माना गया है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब वह समाधि बन जाता है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं। २७ ध्यान की पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनों में ही चित्तवृत्ति की निष्यकंपता या { ९१ panc जैन- परम्परा में ध्यान आन्तरिक तप का एक प्रकार है। इस आन्तरिक तप को आत्मविशुद्धि का कारण माना गया है। उत्तराध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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