Book Title: Jain Sadhna me Dhyan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 14
________________ किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान के नवीन चार भेद किये गये १. पिण्डस्थ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- जैन साधना एवं आचार २. पदस्थ ४. रूपातीत ३. रूपस्थ यह स्पष्ट है कि धर्मध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलत: कौलतन्त्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और हेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन-ग्रंथ में इनकी चर्चा नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा की है। इनके पूर्व के किसी भी आचार्य ने इन चारों आलम्बनों की कोई चर्चा नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत धारणाएँ हैं१. पार्थिवी २. आग्नेयी, ३. मारुति, ४ वारुणी और ५ तत्त्ववती । वस्तुतः ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पञ्च धारणाओं में ध्यान का विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा करेंगे ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पाँचों धारणाओं को जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित किया है यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा । " (१) पिण्डस्थ ध्यान- ध्यान-साधना के लिए प्रारम्भ में कोई न कोई आलम्बन लेना आवश्यक होता है। साथ ही इसके क्षेत्र में प्रगति के लिए यह भी आवश्यक होता है कि इन आलम्बनों का विषय क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होता जाये। पिण्डस्थ ध्यान में आलम्बन का विषय सबसे स्थूल होता है। पिण्ड शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर अथवा भौतिक वस्तु । पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर लेने पर पिण्डस्य ध्यान का अर्थ होगा आन्तरिक शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्त्व करने पर पार्थिवी आदि धारणायें भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती है। ये धारणायें निम्न है (क) पार्थिवीधारणा आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र के अनुसार पार्थिवीधारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए। फिर यह विचार करना चाहिए कि उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार वाला और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य में देदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरु पर्वत के समान एक लाख योजन ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका के ऊपर एक उज्जवल श्वेत सिंहसान है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का समूल उच्छेदन कर रही है। - Jain Education International (ख) आग्नेयीधारणा- ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभिमण्डल में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे। फिर उस कमल की कर्णिका पर अर्ह ॠ, आई की और प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमश: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ऋ ऋ " लृ, लृ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः इन सोलह स्वरों की स्थापना करे। इसके पश्चात् अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे और यह विचार करे कि ये आठ पखुड़ियाँ अनुक्रम से १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अंतराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं। इसके पश्चात् यह चिंतन करे कि उस अहं से जो अग्निशिखायें निकल रही हैं, उनसे अष्टदलकमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधि दे पड़ियाँ दग्ध हो रही है। अंत में यह चिंतन करे कि अहं के ध्यान से उत्पन्न इन प्रबल अग्निशिखाओं ने अष्टकर्म रूपी उस अधोमुख कमल को दग्ध कर दिया है उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त वह्निपुर का चिंतन करना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि उस रेफ से निकली हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की धारणा करे। (ग) वायवीय धारणा- आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है तथा मेरे देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी, उसे वह प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है। अंत में यह चिंतन करना चहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। (घ) वारुणीय धारणा वायवीय धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'वं' से उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है, उसने शरीर और कर्मों की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। (ङ) तत्त्ववती धारणा उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्टकमों के समाप्त हो जाने पर साधक पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्जवल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्त्व का चिंतन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी शुद्ध बुद्ध आत्मा अरहंत स्वरूप है। - इस प्रकार की ध्यान-साधना के फल की चर्चा करते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, स्तम्भन आदि सम्बन्धी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ भूत, प्रेत, पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (७/८२८) तान्त्रिक परम्परा की इन पाँचों धारणाओं को स्वीकार करके भी उन्हें जैन धर्म-दर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया है क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकमों के नाश के द्वारा शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं, किन्तु जब वे টমউ- १०१ ]পभो · For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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