Book Title: Jain Sadhna me Dhyan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार ३) विपाकविचय- पूर्वकर्मों के विपाक के परिणामस्वरूप उदय में आनेवाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना। दूसरे कुछ आचार्यों के अनुसार हेय के परिणामों का चिन्तन करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है। सकता है विपाकविचय धर्मध्यान को निम्न उदाहरण से भी समझा जा मान लीजिए कोई व्यक्ति हमें अपशब्द कहता है और उन अपशब्दों को सुनने से पूर्वसंस्कारों के निमित्त से क्रोध का भाव उदित होता है । उस समय उत्पन्न होते हुए क्रोध को साक्षी भाव से देखना और क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको कोई पीड़ा हुई होगी, अत: यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय धर्मध्यान है। संक्षेप में कर्मविपाकों के उदय होने पर उनके प्रति साक्षी भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं प्रतिक्रिया न करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है। ४) संस्थानविचय- लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्यरूप से संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जाता है, किन्तु लोक एवं संस्थान का अर्थ आगमों में शरीर भी है। अतः शारीरिक गतिविधियों पर अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जा सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थानविचय धर्मध्यान शरीर विपश्यना या शरीर प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्मध्यान के निम्न चार लक्षण कहे गये हैं- ७८ २) निसर्गरुचि धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रुचि होना। (३) सूत्ररुचि- आगम-शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रूचि (४) शुक्लध्यान- यह धर्मध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निष्प्रकम्प किया जाता है। इसकी अन्तिम १) आज्ञारुचि- जिन-आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। शुक्लध्यान चार करना तथा उसके प्रति निष्ठावान रहना। प्रकार के हैं८३ - १. पृथक्त्व-वितर्क- सविचार इस ध्यान में ध्याता कभी द्रव्य का चिन्तन करते करते पर्याय का चिन्तन करने लगता है और कभी पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लगता है। इस ध्यान में कभी द्रव्य पर तो कभी पर्याय पर मनोयोग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। २. एकत्व-वितर्क- अविचारीयोग संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान एकत्व-वितर्क- अविचारध्यान कहलाता है ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती मन, वचन और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। ४. समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति- जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती उस अवस्था को समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि धर्म-साधना और योग-साधना का अन्तिम लक्ष्य है। स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के निम्न चार लक्षण कहे होना। ४) अवगाड़रुचि आगमिक विषयों के गहन चिन्तन और मनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का गम्भीरता से अवगाहन करना। स्थनांगसूत्र में धर्मध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए उसमें चार आलम्बन बताये गये ०६. १. वाचन अर्थात् आगम साहित्य का अध्ययन करना, २ . प्रतिपृच्छना अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। ३. परिवर्तना- अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना ४. अनुप्रेक्षा- आगमों के अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है। स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं:- १. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा और ४. संसारानुप्रेक्षा । ये अनुप्रेक्षाएँ जैन- परम्परा में प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं के हो अन्तर्गत है। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में Jain Education International धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र ८९ के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वही धर्मध्यान का अधिकारी होता है। १. सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) २. दृष्टिकोण की विशुद्धि (दर्शन), ३. सम्यक् चारित्र या आचरण और ४. वैराग्यभाव | हेमचन्द्र ८२ ने योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे धर्मध्यान के लिए १. आगमज्ञान, २. अनासक्ति, ३. आत्मसंयम और ४. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थ का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बर- मान्य पाठ के अनुसार धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय में ही सम्भव है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यदि हम कहें तो सातवें से लेकर ग्यारहवें और बारहवें तक में ही धर्मध्यान संभव है। यदि इसे निरंतरता में ग्रहण करें तो अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय त अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की संभावना है । तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर- मान्य मूलपाठ में धर्म-ध्यान के अधिकारी की विवेचना करने वाला सूत्र है ही नहीं यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर- टीकाओं में पूज्यपाद अकलंक और विधानन्दि सभी ने धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख किया है किन्तु उनका मंतव्य श्वेताम्बर - परम्परा से चित्र है। उनके अनुसार चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही धर्म ध्यान की संभावना है। आठवें गुणस्थान से श्रेणी प्रारंभ होने के कारण धर्मध्यान संभव नहीं है। इस प्रकार धर्मध्यान के अधिकारी के प्रश्न पर जैन आचायों में मतभेद रहा है। गये है८४ monstrant te perduch For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19