Book Title: Jain Sadhna me Dhyan Author(s): Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 7
________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार ध्यान का सामान्य अर्थ 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना है। ३७ चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान के दो रूप निर्धारित हुए- १. प्रशस्त और २ अप्रशस्त । उसमें भी प्रशस्त ध्यान के पुनः दो रूप माने गये १. आर्त और ३. रौद्र । प्रशस्त ध्यान के भी दो रूप माने गये १. धर्म और २. शुक्ला जब चेतना राग या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर केन्द्रित होती है तो उसे आर्तध्यान कहा जा सकता है ऊप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में चित्त का डूबना आर्तध्यान है।" आर्तध्यान चित्त के अवसाद / विषाद की अवस्था है। जब कोई उपलब्ध अनुकूल विषयों के वियोग का या अप्राप्त अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है, वही रौद्रध्यान है। २६ इस प्रकार आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्रध्यान द्वेषमूलक होता है। राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं, अतः अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त माने गये हैं। मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है। यह लोकमंगल और आत्मविशुद्धि का साधक होता है। चूँकि धर्म ध्यान में भोक्ताभाव होता है, अतः यह शुभ आसव का कारण होता है जब आत्मा की चित्त वृत्तियाँ साक्षीभाव या ज्ञाता द्रष्टा भाव में अवस्थित होती हैं, तब साधक न तो कर्ताभाव से जुड़ता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षीभाव की अवस्था ही शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। - Jain Education International अवस्था है, वह ध्यान है। इस गाया में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्तशाखी ने "दंसणणाणसमग्गं" का अर्थ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान की समग्र (समग्र्ग) का अर्थ है ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प | किन्तु जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से भिन्न हो जाता है, तो वही ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से ही ध्यान की सिद्धि होती है । ४४ ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें स्पष्ट रूप से एक विकासक्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूल रूप में ये परिभाषाएँ एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विधि- विकल्पों से रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो जाना ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं। ध्यान का क्षेत्र ध्यान-साधना के दो प्रकार माने गये हैं- एक बहिरंग और दूसरा अन्तरंग | ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के योग्य स्थान (क्षेत्र), आसन, काल आदि का विचार किया जाता है और अन्तरंग साधनों में ध्येय विषय और ध्याता के संबंध में यह विचार किया जाता है कि ध्यान के योग्य क्षेत्र कौन से हो सकते हैं। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि 'जो स्थान निकृष्ट स्वभाव वाले लोगों से सेवित हो, दुष्ट राजा से शासित हो, पाखण्डियों के समूह से व्याप्त हो, जुआरियों, मद्यपियों और व्यभिचारियों से युक्त हो, जहाँ का वातवरण अशान्त हो, जहाँ सेना का संचार हो रहा हो, गीत वादन आदि के स्वर गूँज रहे हों, जहाँ जन्तुओं तथा नपुंसक आदि निकृष्ट प्रकृति के जनों का विचरण हो, वह स्थान ध्यान के योग्य नहीं है। इस प्रकार काँटे, पत्थर, कीचड़, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित तथा कौवे, उल्लू, मृगाल, कुत्तों आदि से सेवित स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं होते हैं। ४५ 'ध्यान' शब्द की जैन- परिभाषाएँ सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान कहा गया है। दूसरे शब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान है। इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है । ४० इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चित्त की चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिन्ता का निरोध ध्यान है । ४१ दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटा कर किसी एक ही वस्तु पर केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि भगवती - आराधना में एक ओर चिन्ता -निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को ध्यान कहा गया है, तो दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है। ४२ आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन ध्यान के आसनों को लेकर भी जैन ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो विचार हुआ है। सामान्य रूप से पद्मासन, पर्यकासन एवं खड्गासन ध्यान के आसन ensionstid 98 þarmorán यह बात स्पष्ट है कि परिवेश का प्रभाव हमारी चित्तवृत्तियों पर पड़ता है। धर्म स्थलों एवं नीरव साधना क्षेत्रों आदि में जो निराकुलता होती है तथा उनमें जो एक विशिष्ट प्रकार की शान्ति होती है, वह ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त होती है। अतः ध्यान करते समय साध को क्षेत्र का विचार करना आवश्यक है। संयमी साधक को समुद्र तट, नदी तट, अथवा सरोवर के तट, पर्वत-शिखर अथवा गुफा किंवा प्राकृतिक दृष्टि से नीरव और सुन्दर प्रदेशों को अथवा जिनालय आदि धर्म स्थानों को ही ध्यान के क्षेत्र रूप में चुनना चाहिए। ध्यान की दिशा के संबंध में विचार करते हुए कहा गया है कि ध्यान के लिए पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर बैठना चाहिये ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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