Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ जैन संस्कृति का आलोक है। दुर्वलता है। अशुभ या विकार की ओर उसका मन झट जब व्यक्ति बहुत दुःखित होता है तो उसका चिंतन चला जाता है, सत् या शुभ की दिशा में, आगे बढ़ने में और-और सभी बातों से हटकर मात्र उस दुःख पर केन्द्रित तन्मूलक चिंतन में, धर्मध्यान में प्रवृत्त होने हेतु बड़ा हो जाता है। आचार्य उमास्वाति ने जैसा प्रतिपादन किया : अध्यवसाय और उद्यम-प्रयत्न करना होता है। अशुभमूलक है उसके अनुसार जब किसी अनिष्ट वस्तु का संयोग हो, आत-रौद्र ध्यान से वह बचे इसलिए यह आवश्यक है कि इष्ट पदार्थ का वियोग हो, दैहिक या मानसिक पीड़ा हो, वह जाने तो सही-वे क्या हैं? सिद्धांततः जगत में सभी भौगिक लालसा की उत्कटता हो. तब मन की. मानसिक पदार्थ, सभी बातें ज्ञेय-ज्ञातव्य या जानने योग्य हैं। ज्ञात चिन्तन की ऐसी स्थिति बनती है। दूसरे शब्दों में बहिरात्मपदार्थों या विषयों में जो हेय हैं उनका परित्याग किया भाव की जितनी उग्रता-तीव्रता होगी, आर्त-चिंतन उतना जाए तथा जो उपादेय हैं, उन्हें ग्रहण किया जाए। यही ही प्रचंड होगा। वह आत्मा के विकास, सम्मार्जन या कारण है कि शास्त्रों में आर्त और रौद्र ध्यान का यथाप्रसंग शान्ति की दृष्टि में सर्वथा अहितकर, अग्राह्य या त्याज्य विवेचन हुआ है। आर्तध्यान रौद्रध्यान तत्त्वार्थ सूत्र में आर्त ध्यान चार कारणों से उत्पन्न होने का उल्लेख है। उस आधार पर उसके चार भेद माने जिस प्रकार उद्भावक कारणों के आधार पर गये हैं। तदनुसार अमनोज्ञ - अप्रिय वस्तुओं के प्राप्त होने आर्त्तध्यान का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार रौद्रध्यान पर उनके विप्रयोग या वियोग के लिये सतत चिन्ता करना। का भी तत्त्वार्थसूत्र में वर्णन है। हिंसा, असत्य, चौर्य, पहला आर्तध्यान है। विषय-संरक्षण के लिए जो सतत चिंतामग्नता होती है, वेदना या दःख के आने पर उसे टर करने की वह रौद्रध्यान है। इसे अधिक स्पष्ट यों समझा जा निरन्तर चिंता करना दूसरा आर्त्तध्यान है। सकता है, जब कोई व्यक्ति हिंसा करने हेतु उतारु हो, । मनोज्ञ/प्रिय वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनकी । उसका अंतर्मानस अत्यंत क्रूर और कठोर बन जाता है प्राप्ति के लिए अनवरत चिंतामग्न रहना तृतीय आर्तध्यान और एकमात्र उसी हिंसामूलक ध्यान में लगा रहता है। असत्य के संबंध में भी ऐसा ही है। जब व्यक्ति अप्राप्त अभीप्सित वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्परत असत्य बोलने, उसे सत्य सिद्ध करने में तत्पर होता है तो रहना तदनुरूप चिंतन करना चौथा आर्तध्यान है।' उसके मन से सत्योन्मख सहज सौम्य भाव विलप्त हो जाता ___ आर्ति का अर्थ पीड़ा, शोक या दुःख है। आर्त का है। अस्वाभाविक एवं मिथ्या भाव रुद्रता या क्रूरता में आशय है- आर्तियुक्त अर्थात् पीड़ित, दुःखित, शोकान्वित। परिणत हो जाता है। ऐसी ही स्थिति चोरी में बनती है। १. आर्तममनोज्ञानां संप्रयोगे तद्धिप्रयोगाय स्मृति समन्वाहारः - तत्त्वार्थसूत्र ६.३१ २. वेदनायाश्च - तत्त्वार्थसूत्र ६.३२ ३. विपरीतं मनोज्ञानाम् - तत्त्वार्थसूत्र ६.३३ ४. निदानं च - तत्त्वार्थसूत्र ६.३८ ५. हिंसाऽनतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत देशविस्तयोः - तत्त्वार्थ सूत्र ६.३६ | जैन साधना और ध्यान ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10