Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 5
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि चोर को भी अपने लक्ष्य में जो वस्तुतः दुर्लक्ष्य है, तन्मय अपायविचय, विपाक विचय तथा संस्थान विचय, ये चार भाव से जुट जाना होता है। भेद किये गये हैं। ये कार्य नितान्त अशुभ है। इसलिए भावात्मक वृत्ति । आज्ञाविचय भीषण और क्रूर हो जाती है। विषय, भोग या भोग्य विचय का अर्थ गहन चिंतन, परीक्षण या मनन है। पदार्थों के संरक्षण के लिए भी व्यक्ति कठोर, क्रूर तथा आज्ञाविचय ध्यान में सर्वज्ञ-वाणी ध्येय-ध्यान के केंद्र रूप उन्मत्त बन जाता है। उसका चिंतन अत्यंत रौद्रभावापन्न में ली जाती है। उनकी वाणी-देशना सर्वथा सत्य है, अथवा दुर्धर्ष क्रोधावेश लिए रहता है। पूर्वापर विरोध विवर्जित है, सूक्ष्म है। वह तर्क और रौद्र शब्द रुद्र से बना है। रुद्र के मूल में रुद् धातु युक्ति द्वारा अबाधित है। वह आदेय है। सभी द्वारा है - जिसका अर्थ रोना है - जो अपनी भीषणता, क्रूरता आज्ञा रूप में ग्रहण किये जाने योग्य है, हितप्रद है। अथवा भयावहता द्वारा रूदन-द्रवित कर दे। ऊपर जिन क्योंकि सर्वज्ञ अतथ्यभाषी नहीं होते। स्थितियों का विवेचन हुआ, वे ऐसी ही दुःसह होती हैं। यों चित्त को सर्वज्ञ की वाणी या आज्ञा पर टिकाते । इन पाप बंधक दो ध्यानों के बाद धर्मध्यान और हुए, एकाग्र करते हुए द्रव्य, गुण और पर्याय आदि की शुक्लध्यान का निरूपण आता है। ये दोनों ध्यान आत्मलक्षी दृष्टि से तन्मयता और स्थिरतापूर्वक ध्यान करना आज्ञा हैं। शुक्लध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों के सधता है। वह विचय कहा जाता है। अन्तःस्थैर्य या आत्मस्थिरता की क्रमशः पराकाष्ठा की दशा अपायविचय है। धर्मध्यान उससे पहले की स्थिति है। वह शुभमूलक उपाय का विलोम अपाय है। उपाय प्राप्ति या लाभ है। कुंदकुंद आदि महान् आचार्यों ने अशुभ, शुभ और का सूचक है। अपाय हानि विकार या दुर्गति का द्योतक शुद्ध इन तीन शब्दों का विशेष रूप से व्यवहार किया है। है। कषाय - राग-द्वेष, क्रोध, मान और माया आदि से अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक तथा शुद्ध पाप-पुण्य से उत्पन्न होनेवाले अपाय-कष्ट या दुर्गति को सम्मुख रखकर अतीत, निरावरण शुद्ध आत्ममूलक है। आर्त्त-रौद्र ध्यान जहाँ चिंतन को एकाग्र किया जाता है, वह अपाय विचय अशुभात्मक, धर्मध्यान शुभात्मक तथा शुक्ल ध्यान शुद्धात्मक ध्यान कहा जाता है। अपाय चिंतन उस ओर से निवृत्त आत्म भाव में संप्रवृत्त होने की दिशा प्रदान करता है। इस ध्यान में संलग्न योगी-साधक ऐहिक - इस लोक विषयक धर्मध्यान तथा आमुष्णिक - परलोक विषयक अपायों का परिहार तत्त्वार्थ सूत्र में धर्मध्यान के आज्ञा विचय, करने में समुद्यत हो जाता है। पाप-कर्मों से निवृत्त हुए १. आज्ञाऽपायविपाक संस्थान विचयाय धर्ममप्रमत्त संयतस्य । - तत्त्वार्थसूत्र ६.३६ २. आज्ञा यत्र पुरस्कृत्य, सर्वज्ञानामबाधिताम् । तत्वतस्चिन्तयेदस्तिदाज्ञा ध्यान मुच्यते।। सर्वज्ञवचनं सूक्ष्म, हन्यते यन्न हेतुभिः। तदाज्ञा रूप मादेयं, न मृषा भाषिणो जिनाः।। - योगशास्त्र १०.५-६ ६६ जैन साधना और ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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